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के. आर. चन्द्र
संपन्ना मणोरधा (8.4.285 और 302 के अनुसार) शौरसेनी :- संपन्ना मणोरधा (8.4.285)
आ. श्री हेमचन्द्र द्वारा दिये गये अपभ्रंश के उदाहरणों में भी न्न = न के प्रयोग भी मिलते हैं – किलिन्नओ (8.4.322), निन्नेह (२.4,367) । अन्य संयुक्त न्न के प्रयोग वाले उदाहरण इस प्रकार मिलते हैं :
विनासिआ (8.4.418) बिन्नि (8.4.418) अधिन्नई (8.4.2.)। वज्जालग्गं (एम. वी. पटवर्धन संस्करण) में न्न अपनाया गया है । नम्मयासुदरी (सिंघी जैन सीरिज) में न्न = न्न अपनाया गया है । डा. मेहेण्डले ने शिलालेखों की भाषा के विषय में अपने उपसंहार में •न्न = न्न या ण्ण के बारे में कुछ नहीं कहा है ।
(ग) न्य = न्न या प्रण :
आ. हेसचन्द्र ने 'वादौ" सूत्र (8 1.229) द्वारा आदि नकार का वैकल्पिक न होना बतलाया है। उसी सूत्र की वृत्ति में ऐसा बतलाया है कि "न्याय" शब्द का "नाओ" होता है । इससे यह फलित होता है कि आदि न्य का न होता है परन्तु मध्यवर्ती न्य के लिए कोई आदेश नहीं दिया हैं । उनके द्वारा उद्धृत उदाहरणों से स्थिति जानी जा सकती है । वररुचि के उदाहरणों में तो न्य = पण ही मिलता है जबकि आ. हेमचन्द्र के व्याकरण में अनेक उदाहरण न्य = न्न वाले मिलते हैं :- सेन्न = (सेन्य), अहिमन्नू (अभिमन्युः), अन्नोन्नं (अन्योन्यम् ), मन्ने (मन्ये), अन्नारिसो (अन्यादृशः) और अपभ्रंश-अन्नाइसो ।
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