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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्घमागधी
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. में पश्चिम में आता हैं और तत्पश्चात् ण (एण) मिलता है ।
दक्षिण में तो ण (गण) अन्य शताब्दियों में भी वैसा का वैसा रहता है । कहने का सार यह है कि ण्य = न्न पूर्व से अन्य क्षेत्रों में जबकि ण्य = bण उत्तर-पश्चिम और दक्षिण से अन्य क्षेत्रों में फैला । इस प्रकार की प्रवृत्ति के अनुसार अर्धमागधी के प्रारंभिक काल में ण्य का न्न भी हो सकता है । पश्चिम में भी ण्य = अ (ञ) के स्थान पर ण्य = न्न का प्रसार बढ़ता है और बाद में ण का । (ख) न्न = न्न या ण्ण
दो दन्त्य अनुनासिकों के संयुक्त प्रयोग अर्थात् न्न के लिए. वररुचि के प्राकृत प्रकाश में जो उदाहरण मिलते हैं उनमें न्न का ण्ण मिलता है । परन्तु आ. श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में न्न = न्न के प्रयोग मिलते हैं । यथा-उच्छन्ना (8.1.114), किलिन्न (8.1.145), किलिन्नं (8.2.106), पडिवन्नं (8.1.206), धात्वादेश में उन्नामइ (8.4 36), पन्नाड़इ (8 4.126) ।
न = न्न या एण के वैकल्पिक प्रयोग के कारण डॉ. वैद्य के आ. श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के संस्करण में मूल में उच्छन्ना और पडिवन्नं के स्थान पर ग्रन्थ के अंत में दी गई शब्दाबली में उच्छपणो और पडिवण्णं छपा है। पं. श्री बेचरभाई दोशी के गुजराती संस्करण में इन दोनों शब्दों में न्न ही मिलता है । आ. श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण म' लगभग 75 प्रतिशत संयुक्त दन्त्य न्न = न्न ही मिलता है उनके द्वारा दिये गये मागधी और शौरसेनी प्राकृत के उदाहरणों में न्न = न्न भी मिलता है ।
मागधी :- अवन्नवश्चले (8 4.295).
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