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१०. प्राचीन प्राकृत भाषा में ण्य, न्न, न्य, और
णे का न्न या पण सामान्य प्राकृत भाषा में वररुचि या आ. श्री हेमचन्द्र किसी ने ण्य, न्न, न्य और ण में होने वाले ध्वन्यात्मक परिवर्तन के बारे में कुछ विशेष नहीं कहा है । मागधी और पैशाची • प्राकृत में न्य और ण्य का ा में बदलने का नियम आ. हेमचन्द्रने ने (84.293, 305) दिया है । वररुचि के अनुसार उनका (127) ज हो जाता है, जो विद्वानों की दृष्टि में शंकायुक्त ही रहा है और इसे लिपि-दोष माना गया है -
सूत्र-ब्रह्मण्यविज्ञयज्ञकन्यकानां एयज्ञन्यानां जो वा 12.7 (क) ण्य = पण या न्न :
आ. श्री हेमचंद्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में जितने भी उदाहरण दिये हैं उनमें जहाँ पर भी ण्य का प्रसंग है वहाँ पर ण्य = ण ही · प्रायः मिलता है । अपवाद के रूप में अपभ्रंश में अरण्य के लिए
रन्नु भी मिलता (1.341) है । प्राचीन प्रतों और मुद्रित प्राकृत • साहित्य में अपवाद के रूप में कहीं-कहीं पर ण्य = न्न मिलता है । . नम्मयासुन्दरी (सिंधी जैन सीरिज) में ण्य = न्न के प्रयोग मिलते हैं ।
डा. मेहेण्डले (पृ. 281) के अनुसार अशोक के शिलालेखों में · पूर्वी क्षेत्र और उत्तर में ण्य का न (न्न), पश्चिम में न (न्न) और
ज (आ), उत्तर-पश्चिम में आ(च) मिलता है । यह ण्य = न(न्न) पूर्व से मभ्य क्षेत्र में और फिर पश्चिम की ओर बढ़ता है, जबकि • ण्य = ण (ण) उत्तर-पश्चिम में और दक्षिण में ई. स. पूर्व तीसरी
शताब्दी में मिलता है । यही ण (एण) ई. स. पूर्व द्वितीय शताब्दी
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