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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ८१ "किसी न किसी प्रकार लोकभाषा में प्रचलन के कारण बच पाये हैं ।
आचारांग में तो तृतीया बहुवचन की विभक्ति -भि (थीभि १.२.४. ८४ म. जै. वि. संस्करण) भी बच गयी है ।।
. शिलालेखों में यही -म्हि विभक्ति इस प्रकार मिल रही है, जैसे- अशोक के शिलालेखों में :
. नाम शब्द -अथम्हि (गि० ४.१०), सर्वनाम -तम्हि, इमम्हि, अञम्हि, एकतरम्हि (गि० ४.१०, ९.२, ९.८,. १३.५)। ये सभी
शब्द गिरनार के लेखों में मिलते हैं । यही विभक्ति प्रत्यय द्वितीय : शताब्दी ई० सन् पू० में काले के लेख में 'जंबुदीपम्हि', प्रथम शताब्दी ई० सन् पू० में बुन्देलखण्ड के भरहुत के लेख में 'तीरम्हि', रेवाराज्य की सीलहरा के प्रथम शताब्दी के गुफा लेख में 'करयंतम्हि', द्वितीय शताब्दी में दक्षिण के नागार्जुनी-कोण्ड के लेख में 'महाचेतियम्हि' और तीसरी शताब्दी में एलरा के ताम्रपत्र में 'पदेसम्हि' मे मिलता है । अर्थात् अशोक-कालीन पश्चिमी क्षेत्र का यह विभक्ति प्रत्यय . मध्य भारत और दक्षिण भारत में भी प्रचलित हुआ ।
आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार नाम शब्दों मे सप्तमी एक • वचन के लिए सामान्यतः -ए और -म्मि विभक्ति प्रत्यय (८.३.११) .. और सर्वनामों के लिए -स्सि, म्मि और त्थ (८.३.५९) विभक्ति • प्रत्यय हैं किन्तु उनके प्राकृत व्याकरण में -असि विभक्ति प्रत्यय का
उल्लेख नहीं है जो नाम और सर्वनाम दोनों में पाया जाता है । वररुचि के व्याकरण में भी ऐसा उल्लेख नहीं है ।
. 2. गिरनार लेख ४.१० में इमम्हि और अथम्हि के साथ ४.९ में धमम्हि का प्रयोग
मिलता है । गिरनार में (२.१) विजितम्हि और (६.४) विनीतम्हि प्रयोग भी हैं । यह विनीतम्हि धौली और बोगर (६.२) में 'विनीतसि' और शाहवाजगढी और मानसेहरा में 'विनितस्पि' हो गया है।
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