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के. आर. चन्द्र
सबसे बाद का मालूम होता है, जिसकी उत्पत्ति ध्वनि-परिवर्तन के सिद्धान्त से स्पष्टतः -म्हि में से हुई है और लेखन की असावधानी के कारण , स और म के बीच (लिपि-दोष से 'स' में 'म' का) भ्रम* हो जाने से –'म्सि' का -म्मि' या -'सि' का -'मि' में परिवर्तन होना भी अशक्य नही कहा जा सकता । अर्धमागधी के प्राचीन अंशों में -सि के स्थान पर -मि' 'म्मि' आ. जाने का यह भी एक सबल कारण है । .
इस सारे विवेचन से यह फलित होता है कि यदि प्राचीन अर्धमागधी साहित्य की प्रतियों में स. ए. व. के लिए -स्सिं, •स्सि, -स्मि या -म्हि प्रत्यय मिलते हो तो उन्हें गलत मानकर उनके स्थान पर -ांसि और -म्मि का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
इस संदर्भ में प्राकृत भाषा की प्राचीनतम कृति से एक उदाहरण देना अनुपयुक्त नहीं होगा जिसमें सप्तमी एकवचन का –स्सिं प्रत्यय एक पाठान्तर के रूप में -असि के स्थान पर आचारांग में मिलता हैलोगस्सिं (सं. ख. जै प्रतियों के अनुसार, १.८.३.२०९, पृ० ७५, म. जै. वि. संस्करण) ।
. आचार्य हेमचन्द्र के द्वारा -स्सिं विभक्ति प्रत्यय सर्वनाम के लिए दिया गया है और यह उदाहरण नामिक विभक्ति प्रत्यय का है । अर्धमागधी भाषा के प्राचीन लक्षणों के बारे में अल्प जानकारी के कारण हमारे लेहियों अथवा संपादकों के हाथ कितने ही प्राचीन 4. सम्वाउसा-इसिभा. २६. प. १ (पाठान्तर-मबाउसे।), सिसिरंसि-आचा, १.९४.३.९ (पाठा. सिसिमि, सं, खे, ने) । आचा. (मजे वि.) सूत्र १ के 'सुय मे आउस' के 'सुय' शब्द में जेसलमेर की एक विसं. १४८५ की तारपत्र की प्रति में 'मुयः' का भ्रम होता है ।
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