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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी (ii) स्मि स्मि म्भि (iv) स्मि स्सिं सि सि ..
[ प्रत्ययों के इस भाषिक विकास-क्रम में कहीं कहीं पर लिपिदोष का भ्रम स् और भू के बीच स्पष्ट हो रहा है । ) - पालि साहित्य में -स्मिं और -म्हि (गाइगर ७८,८२,९५) प्रत्यय का प्रचलन रहा । व्याकरणकार मोग्गलान के अनुसार पालि में –म्सि प्रत्यय भी था (गाइगर ७९) । अशोक के शिलालेखों में -सि (स्सि) और -म्हि प्रत्यय मिलते हैं और तीसरी शताब्दी में दक्षिण में -म्सि (असि) प्रत्यय मिलता है। अर्धमागधी भाषा में -असि प्रत्यय मिलता है लेकिन व्याकरणकार हेमचन्द्र (८.३.५९) -स्सिं प्रत्यय का मात्र सर्वनाम के लिए ही उल्लेख करते हैं ।
विविध प्राकृत भाषाओं में –निस (असि),-स्सि,-हि और (-अंमि) --म्मि प्रत्यय मिलते हैं (पिशल ३६६ अ और ४२५) । पिशल महोदय ने जैन शौरसेनी में मिलने वाले 'तम्हि' रूप को (४२५) गलत बताया है । हमारी दृष्टि से यह गलत नहीं होगा क्योंकि 'इमम्हि' रूप व्यवहारसूत्र में और -म्हि वाले प्रयोग कुन्दकुन्द के साहित्य में मिलते हैं । -हि विभक्ति-प्रत्यय मात्र पालि भाषा का ही हो ऐसा एकांत दृष्टि से नहीं कहा जा सकता । कुछ प्रत्यय अमुक काल तक पालि और अर्धमागधी दोनों भाषाओं में समान रूप से प्रचलित रहे होंगे ऐसा कहना अनुपयुक्त नहीं होगा। अथवा ऐसा भी असंभव नहीं माना जा सकता कि उत्तरवर्ती लेहियों ने प्राचीन प्रत्ययों के स्थान पर उस समय में प्रचलित नये प्रत्ययों को रख दिया हो ।
ऊपर दिये गये अनेक विभक्ति प्रत्ययों में से -म्मि प्रत्यय
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