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आर. चन्द्र
ज्ञ का ञ (८.४,२९३) होता है-पा, शव्वज्ञ, अवा (प्रज्ञा, सर्वज्ञ, अवज्ञा) ।
अतः मागधी में ज्ञ के लिए न ही मान्य था और वररुचि के अनुसार जो ण, ण्ण फलित होता है वह भी योग्य नहीं लगता । यह तो उत्तरवर्ती प्रवृत्ति का अनुकरण उनके व्याकरण में (उत्तरवर्ती काल में) कर दिया गया हो ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है, क्योंकि बारहवां. अध्ययन ही प्रक्षिप्त माना गया है, जिसमें मागधी का विवरण. मिलता है । पैशाची भाषा में ज्ञ का ज : - श्री वररुचि (१०.९ के अनुसार पैशाची में ज्ञ का ज होताः है । पाठान्तर में ज्ज मिलता है । पिशल के अनुसार ये दोनों गलतः । हैं । उनकी राय में हेमचन्द्र का सूत्र (४.३०३) ही सही है जो ज्ञ का आदेश देता है, पा, सव्वयो, विज्ञानं (प्रज्ञा, सर्वज्ञः, विज्ञानम्) । शौर सेनी मे ज्ञ=ण और ज्ज :
श्री वररुचि के अनुसार (१२.७) ज्ञ:5ज और ण (ण) और आ. हेमचन्द्र के अनुसार (८.४.२८६) शेषं प्राकृतवत् अर्थात् प्राकृत की तरह ज्ञ का प्रण और कभी कभी ज्ज होता है (सूत्र ८.२.४२ और ८.२.८३), पण्णा, णाण (प्रज्ञा, ज्ञानम् ), मणोज्जं, पज्जा (मनोज्ञम्, प्रज्ञा) । परन्तु आ. हेमचन्द्र द्वारा शौरसेनी भाषा के अन्तर्गत पहले ही सूत्र (८.४.२६०) की वृत्ति में दिये गये उदाहरण 'पदिओन' में ज्ञ के लिए ज्ञ का प्रयोग है । अर्थात् शौरसेनी में जा की. प्रवृत्ति चालू थी परन्तु उत्तरवर्ती काल में bण आ गया हो ऐसा फलित होता है ।
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