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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
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सामान्य प्राकृत और ज्ञान ..... सामान्य प्राकृत में वररुचि (३.५.३.४ ४) और हेमचन्द्र के
अनुसार (८.२.४२,८३,३.५५) ज्ञ का vण और ज्ज होता है । प्राकृत के इन व्याकरणकारों ने किसी भी प्राकृत भाषा के लिए ज्ञ-न्न का उल्लेख नहीं किया है । सिर्फ भरत के नाट्यशास्त्र (१७.२२), में ही यज्ञ के लिए 'जन्न' शब्द का प्रयोग प्राकृत भाषा के लिए बतलाया गया है । इस उदाहरण में ज्ञन्न स्पष्ट हो रहा है । पिशल द्वारा दिये गये उदाहरण :
पिशल महोदय (२७६)को मागधी भाषा के लिए ज्ञ-ज्ज के उदाहरण साहित्य में कहीं पर भी नहीं मिले, मात्र प्रण के ही उदाहरण मिले हैं। अर्धमागधी और महाराष्ट्री साहित्य में से भी ज्ञ-उज के उदाहरण उन्हें नहीं मिले । शौरसेनी से मणोज्ज दिया है। परन्तु पाइयसद्दमहण्णवो के अनुसार प्रज्ञापना सूत्र में (अर्धमागधी) और उपदेशपद (जैन महाराष्ट्री) में मणोज्ज शब्द मिलता है ।
नाटको से उदारहण :
स्वप्नवासवदत्तम् में आदि (ज्ञाति), विज्ञाण (विज्ञान) अज्ञाद (अज्ञात) और उसी नाटक में पडिण्णा (प्रतिज्ञा) और आणवेदि (आज्ञापयति) अर्थात् ञ और ण्ण वाले दोनों प्रकार के प्रयोग मिलते. हैं । भास के अन्य नाटकों में भी अ का प्रयोग मिलता है । परन्तु विक्रमोर्वशीयम् और मृच्छकटिकम् में ज्ञ का प्रण मिलता है । शाकुन्तलम् में भी ण (आणवेदि) मिलता है । पिशल को (२७६) अर्धमागधी साहित्य के सिवाय अन्य प्राकृत भाषा के साहित्य से कोई भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला जिसमें ज्ञ का न्न हो। पिशल महोदय ने (२७६)
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