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________________ ..२८ के. आर. चन्द्र शिलालेखीय भाषा के इस विश्लेषण से यही प्रमाणित हो रहा है कि मध्यवर्ती व्यंजनों का घोषीकरण प्राचीन है जबकि लोप उसके • बाद की प्रवृत्ति है । लेाप की प्रवृत्ति का प्रचलन उत्तर-पश्चिम और पश्चिम (अर्थात् विन्ध्य का दक्षिणी भाग भी) में सबसे पहले हुआ और पंजतर, कलवान तथा तक्षशिला के प्रथम शताब्दी के शिलालेखों में तो मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप ३० से ३४ प्रतिशत मिलता है । . शारिपुत्र-प्रकरणम् की तुलना में स्वप्नवासवदत्तम् , विक्रमोर्वशीयम् और मृच्छकटिकम्-इन विभिन्न काल के तीन नाटकों में मध्यवर्ती व्यंजनों के घोष बनने की और फिर लोप होने की प्रवृत्ति क्रमश: बढती ही जाती है । आचारांग (म.जै.वि. संस्करण) के प्रथम अध्ययन की भाषा के ध्वन्यात्मक परिवर्तन संबंधी विश्लेषण से पता चलता है कि उसमें मध्यवर्ती ग यथावत् मिलता है, क का लोप मात्र ३५% है और घोषीकरण ६५% है, द का लोप मात्र २०% है, त का लोप भी .३०% है और प का प्रायः व मिलता है। पउमचरियं में मध्यवर्ती प का लेप ७% और प का व ७५% मिलता है । वसुदेवहिंडी में प का व ७१% और लोप ०% मिलता है । आल्सडर्फ द्वारा सम्पादित सूत्रकृतांग के इत्थीपरिन्ना' नामक अध्याय में के का लोप मात्र २२% ही है और क का ग ६५% मिलता है । इसमें मध्यवर्ती ग का लोप १३०/० मिलता है । प को व में परिवर्तन ९५% मिलता है और व का लोप मात्र २४ मिलता है । ऐसी अवस्था में व्याकरणकारों का प्रायः लोप का नियम किस : प्रकार लाग होगा ? कम से कम प्राचीन ग्रन्थों की भाषा पर यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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