________________
परम्परागत प्राकत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी २९ नियम लाग नहीं किया जा सकता है । अतः व्याकरणकारों द्वारा आदिष्ट (मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप एवं घोषीकरण के) नियमों में एकरूपता के अभाव से तथा शिलालेखीय प्रमाणों से (कि प्रारम्भ में घोषीकरण और तत्पश्चात् लोप की प्रवृत्ति का विकास हुआ) और प्राचीन साहित्य एवं नाटकों की भाषा इन सभी प्रकार के आधारों से ई०स० पूर्व की तीसरी शताब्दी से प्रथम शताब्दी ई०स० पूर्व तक की प्राकृत भाषा का क्या स्वरूप रहा होगा यह जाना जा सकता है। ऐसी अवस्था में अर्धमागधी आगमों के उन अंशों का जो प्राचीन माने गये हैं, याकोबी महोदय ने तीसरी शताब्दी ई०स० पूर्व से पश्चात् कालीन नहीं माता है-उन उन अंशों में मध्यवर्ती व्यंजनों का प्रायः लोप कहाँ तक उचित माना जाएगा ? अतः ऐसे अंशों का. सम्पादन उपलब्ध सामग्री के आधार पर प्राकृत भाषा के प्राचीन भाषाकीय तत्त्वों का तारतम्य ध्यान में रखकर किया जाना अनिवार्य बन जाता है । इस तथ्य (अर्थात् मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोप प्राचीन प्राकृत साहित्य में उचित नहीं ठहरता) की पुष्टि उत्तराध्यन के १३वें अध्याय की उन गाथाओं से भी होती है जिन्हें आल्सडर्फ ने प्राचीनतम' बताया है । ये गाथाएं इस प्रकार हैं६, १०, ११, १२, १५, १८, २६, २७ और ३० । इन नौ. गाथाओं का भाषाकीय विश्लेषण इस प्रकार है --(इनमें मध्यवर्ती त. और द के परिवर्तन को छोड़ दिया गया है)।
शाण्टियर संस्करण पुण्यविजयजी संस्करण यथावत् घोष लोप यथावत् घोष लोप
०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org