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________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ६. नकार को सर्वत्र णकार में बदलने का नियम शास्त्रीय हो सकता है परंतु वास्तविकता से मल नहीं खाता है । प्राचीनतम प्राकृतों (मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, इत्यादि) में नकार का सर्वत्र णकार हो गया हो यह विश्वसनीय नहीं होता है । अतः अर्धमामधी के प्राचीन ग्रंथों के सम्पादन में सर्वत्र नकार का प्रकार बनाना उचित नहीं माना जा सकता । कम से कम इतनी मर्यादा तो अवश्य रखी जा सकती है कि यदि किसी एक हस्तप्रत में ही नकार मिलता हो तो ऐसी अवस्था में नकार ही स्वीकार किया जाना चाहिए जिससे अर्धमागधी भाषा की प्राचीनता और उसका अपनी पूर्वी प्रदेश को लाक्षणिकता अक्षुण्णा बनी रहे । (ङ) पण, ण्य और ण का भी न्न में परिवर्तन इसके साथ यह भी ध्यान में लेने योग्य है कि एण, ण्य और र्ण का जो सामान्यतः न होता है उसके स्थान पर हस्तप्रतों में कभी कभी न्न भी मिलता है । पिशल ने (225) इस संबंध में जैन साहित्य की हस्तप्रतों से उदाहरण भी दिये हैं (निसन्न), परिपुन्न (प्रतिपूर्ण), वन्न (वर्ण) । ऐसे उदाहरण और भी जोडे जा सकते हैं जैसे कि मुनि श्री पुण्यविजयजी द्वारा संपादित उत्तराध्ययन (म जै वि. संस्करण) में ण्य-न्न के कुछ प्रयोग, नर्मदासुन्दरी कथा में ण्य =न्न के कुछ प्रयोग और हेमचन्द्राचार्य के अपभ्रंश व्याकरण के कुछ उदाहरणों में, रन्नु (अरण्य 4.341 ), चुन्नी (ची 4.430) कन्नडइ (कर्णे 4.432 ) जैसे प्रयोग । मेहेण्डले के अनुसार ण्य=न्न की प्रवृत्ति पूर्वीक्षोत्र में पायी जाती है (पृ. 281) । देखिए आगे अध्याय = (१०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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