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के
आर. चन्द्र
किसी भी प्राकृत भाषा के विषय में ऐसे प्रयोग का उल्लेख नहीं है । ण = न की यह प्रवृत्ति अशोक के पूर्वी प्रदेश के शिलालेशों में पायी जाती है । अपवाद के रूप में ऐसे प्रयोग शाहबाजगढ और मानसेरा में अल्प प्रमाण में और येरागुडी (मैसूर) में कुछ अधिक प्रमाण में पाये जाते हैं । अशोक के पश्चात् ऐसे प्रयोग अन्य क्षेत्रों में भी फैलते हैं परंतु उनका प्रमाण बहुत कम है (मेहेण्डले पृ. 273) उत्तर पश्चिम के प्रथम से चौथी शताब्दी तक के खरोष्ठी के शिलालेखों में भी कुछ ऐसे प्रयोग मिलते हैं (मेहेण्डले पृ 304)।
भारत के पूर्वी प्रदेश की भाषा मागधी भी । अशोक के शिलालेखों के अनुसार धौली और जौगड में णकार का प्रायः नकार मिलता है परंतु किसी भी व्याकरण में मागधी भाषा के लिए ण-न का उल्लेख नहीं मिलता है । इसका क्या कारण हो सकता है, यह विचारणीय है ।
___अशोक के पश्चात् अन्य शिलालेखों में प्राप्त ण-न के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं :
(') ई. स. पू. दूसरी शताब्दी (वेसनगर, भिलसा)-(वषेन-वर्षे ण) (2) ई. स. प्रथम शताब्दी (मथुरा, बुद्ध-प्रतिमा लेख) प्रहान ___ (प्रहाण), (भर्हत स्तंभ लेख) पुतेन (पुत्रेण) (3) तीसरी शताब्दी (नागार्जुनीकोण्ड, वीरपुरुषदत्त) परिनामेतुनं - (परिणमय्य) । (4) ई. स. तीसरी-चौथी शताब्दी (नागार्जुनीकोण्ड) अचरियेन - (आचार्येण) थेरेन (स्थविरेण) इस सारे अध्ययन और विश्लेषण का सार यही है कि मध्यवर्ती
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