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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
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(VI) ई. स. चतुर्थ शताब्दी के नागार्जुनी-कोण्ड के स्तंभ लेख में -
अनेक, अनंत, इखाकूनं तथा मैसूर के मयूरशर्मण के लेख , में-विनिम्मिश्र, सकस्थन । गुण्टूर के ताम्रपत्र (स्कंदवर्मन) में । -जननी, वद्धनीयं एवं बैलारी ताम्रपत्र (शिवस्कंद वर्मन्) हीरहड-।' गल्लि में-सेनापति, सासनस्स, अनेक, मनुस, वनिक, पदायिनो, ।' मदेन, इत्यादि के लिए देखिए पिशल-२२४.
शिलालेखों में मध्यवर्ती नकार के स्थान पर णकार के प्रयोम। . के विषय में डाक्टर मेहेण्डले का क्या अभिप्राय है उसे भी ध्यान में : लेना लाभदायी होगा । उनके कहने का सार यह है कि अशोक के समय में सभी जगह कुछ ही प्रयोग एसे मिलते हैं जिनमें नकार का णकार हुआ है । ये प्रयोग भी मुख्यत: पश्चिम, * दक्षिण* * और उत्तर : पश्चिम मे मिलते हैं । अशोक के पश्चात् भी पश्चिम और उत्तर-.. पश्चिम में नकार का णकार मिलता है परंतु अल्प प्रमाण में ही। दक्षिण में प्रथम शताब्दी से नकार का णकार अधिक प्रमाण में तो मिलता है परन्तु सर्वत्र के रूप में नहीं । नकार के स्थान पर णकार के प्रयोग की बहुलता चौथी शताब्दी से मध्यक्षेत्र में पायी जाती है ।
उनका कहने का तात्पर्य यह है कि ई. स. पूर्व या ई. स. की प्रारंभिक शताब्दियों में भारत के किसी भी प्रदेश में नकार के स्थान पर णकार का प्रयोग प्रायः के रूप में या सर्वत्र के रूप में
होता हो ऐसा शिलालेखों से प्रमाणित नहीं हो रहा है । . घ मध्यवर्ती कार का नकार-एक नया मुद्दा
(अ) व्याकरणकारों के अनुसार पैशाची और चूलिका पैशाची भाषा में कार के स्थान पर नकार का प्रयोग होता है । " अन्य * पश्चिम अर्थात् विन्ध्य पर्वतमाला का दक्षिणी भाग । ** दक्षिण में कोपचाल के शिलालेखों में न = ण 50% मिलता है ।
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