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के.
आर. चन्द्र
(ग) शिलालेख
. हस्त प्रतों में कालान्तर से चालू भाषा के प्रभाव के कारण, भाषिक परिवर्तन हो जाना एक सामान्य बात है परंतु शिलालेखां की: भाषा उत्कीर्ण होने के कारण उसमे कोई परिवर्तन नहीं होता है । अतः उनकी भाषा में मध्यवर्ती नकार के जो अनेक प्रयोग मिलते हैं वे प्राकृत भाषा के अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं । निम्न उदाहरणों से स्पष्ट होगा कि मध्यवर्ती न का ण में परिवर्तन होते हुए भी कितने ही प्रयोग ऐसे चलते थे जिनमे मूल नकार यथावत् ही रहता था :
(1) ई. स. पूर्व दूसरी शताब्दी के भिलसा, (वेसनगर) के शिलालेख में भागवतेन, योनदूतेन, आगतेन, राजेन, पदानि, वधमानस, योन, आदि ।
अजमेर (बी) के शिलालेख में-मालिनिये । (II) ई. स. पूर्व प्रथम शताब्दी के नानाघाट के गुफालेख में
वासुदेवान, चंदसूरानं, वधनस एवं खारवेल के शिलालेख में
मेघवाहनेन, सेनाय, यवनराज । (III) ई. स. प्रथम शताब्दी के भर्तृत स्तंम लेख मे- धनभूतिन(ना)
तथा सारनाथ के बौद्धमूर्ति लेख में-वनस्परेन, खरपल्लानेन । (IV) ई. स. द्वितीय शताब्दी के मथुरा जैन-मूर्तिलेख (हुविष्क) मे
शिसगन (शिष्यकेन) तथा नासिक के गुफालेख (नहपान) मे:वसवुथान । ई. स. तृतीय शताब्दी के नागार्जुनी-कोण्ड के वीरपुरुषदत्त के लेख में-मनुस, मान, पसमन, चीन,थेस्यिनं, भगिनीय और शान्तमूल के लेख में इखाकुनं, अनुथितं ।
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