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________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी कार ही होता है । अतः सम्पादित ग्रंथों में ऐसे नकारवाले शब्दों के पाठान्तर प्रायः नहीं दिये गये हैं, जबकि हस्तप्रतों में कितने ही मध्यवर्ती नकार वाले पाठ मिलते हैं । इससे स्पष्ट है कि परम्परा ऐसी नहीं थी कि सर्वत्र नकार का णकार कर दिया जाय । हस्तप्रतों में उपलब्ध हो रहे मध्यवर्ती नकार वाले पाठों का कुछ दिग्दर्शन यहाँ किया जा सकता है । स्वीकृत पाठ 4 [ आचरांग ( म. जै. वि . ) ] कट्टणिस्सता 1.1.4.37 अपरिणिव्वाणं 1.1.649 छज्जीवणिकाय सत्थं 1.1.7.62 असि वा अंतिए 1.1.1.2 २ [ सूत्रकृतांग, 1.4 ( इत्थीपरिन्ना ) ] ( म. जै. वि . ) सुमेण 1.2 छन्नपदेण 1.2 garfor 1.4, 16 इससे यह निष्कर्ष नकार का प्रयोग न अपनाकर प्रयोग ही उचित माना हैं । Jain Education International हस्तप्रत में पाठान्तर [ पूना की प्रत ( शुब्रिंग ) ] कट्ठनिस्सिया अपरिनेव्वाणं छज्जीवनिकाय सत्यं अन्नेसिं वा अतिए, चूर्णी पृ. 13.1 ५७ छन्नपदेन " सुहुमेनँ ( आल्सडर्फ ) सुमेन ( चूर्णी पाठ ) 8 पाठान्तर For Private & Personal Use Only एतानि " ܕܐ "" निकलता है कि सम्पादकों ने मध्यवर्ती उसके स्थान पर सर्वत्र णकार का www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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