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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
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त-द के उल्लेख की क्या आवश्यकता थी और सामान्य प्राकृत में ही पं० ए० व० के विभक्ति प्रत्यय -दो और -दु देने की क्या जरूरत थी । उनका उल्लेख शौरसेनी में ही उचित था जैसा कि उन्होंने उस भाषा में सं० भू०० के लिए-दूण [८.४.२७१, २७२] और वर्त. काल. तृ० पु० ए०व० के प्रत्यय -दि, –दे [८.४.२७३, २७४, २७५] का उल्लेख किया है तथा पंचमी ए० व० की विभक्ति -दो और -दु का भी. उल्लेख [८.४.२७६] अलग से किया हा है ।
त-द वाले सूत्रों और उदाहरणों का सामान्य प्राकृत में समावेश करके. क्या उन्होंने एक प्राचीन परम्परा का ही अनुसरण नहीं किया है ? जिस प्रकार कग के प्रयोग अर्घगागधी में अधिक मिलते हैं उसी प्रकार तद के प्रयोग भी अर्धमागधी में रहे होंगे । अतः सामान्य प्राकृत में क-ग की तरह त-द का भी समावेश [भले ही 'व्यत्यय' के नियम से ] कर दिया गया है । अर्धमागधी में तःद के अघोष के. घोष बनने के और वैसे ही थ=ध के जो प्रयोग बच पाए हैं उनमें से कुछ इस प्रकार दिए जा सकते हैं। इसिभासियाई ग्रन्थ से :
भविदव्वं [३.१]; पक्विदा [३८.२३ पाठान्तर ] तधेव [२५. पृ. ५३.१४];तधा[४५.२६]; कधं [२५ पृ० ५५.६], जधा [४०. पृ. ९१.१.४५.९; २५ पृ० ५५.१३,१५,१८] सव्वधा [३५.१२, ३८.२९,४५.२५]
अर्धमागधी जैन-आगम-साहित्य की प्राचीन प्रतियों में और पाठान्तरों के रूप में भी मुद्रित प्रथों में ऐसे घोषीकरण के अनेक प्रयोग मिलते हैं । पू० जंबूविजयजी ने स्पष्ट कहा हैं कि मूल. सूत्र एवं चूर्णी की प्रतियों में मिल रहे जघा और तधा के स्थान पर जहा और तहा पाठ लिये गए हैं [आचारांग, भूमिका,. पृ० ४४, म० जै० वि० संस्करण] ।
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