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________________ के. आर. चंद्र इस सूत्र की वृत्ति में सबदो, एकदो, अन्नदो, कदो, जदो और इदो के उदाहरण आते हैं जबकि सूत्र न. ८.१.२०९ में पहले ही निषेध कर दिया गया था कि त का द प्राकृत में नहीं होता है । सूत्र. नं. ८.३.७१ -किम: कस्त्र – तसोश्च में भी कओ और कत्तो के साथ कदा का भी उदाहरण है। सूत्र नं. ८.३.६९ में एदिणा, एदेण के उदाहरण दिये गये हैं और ८.३.८ में पंचमी एक वचन के लिए -दो और-दु विभक्तियाँ दी गयी हैं जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है । त के द का निषेध करते हुए इसी सूत्र [८.१.२०९] की वृत्ति में यह भी कह दिया कि [८.४.४४७ के अनुसार कभी-कभी व्यत्यय भी होता है इसका अर्थ यह हुआ कि त का द नियमित नहीं 'परन्तु कभी कभी सामान्य प्राकृत में मिलता है। सूत्र नं० ८.१.१७७ की वृत्ति में भी कभी कभी क का ग और च का ज होना बतलाया गया है और वहां पर भी उन्हें 'व्यत्यय' (८.४.४४७) की कोटि में रखा गया है । तो क्या इसी सूत्र के अन्तर्गत त के क्वचित् द होने की चर्चा नहीं की जा सकती थी ? भाषा-शास्त्र की दृष्टि से यह प्रवृत्ति तो अघोष व्यंजनों के घोष बनने की है जो लोप की प्रवृत्ति से पूर्ववर्ती मानी जाती है । इस पूर्ववर्ती प्रवृत्ति का प्रभाव ही परवर्ती भाषा पर क्वचित् मिलता हो या किसी अंश में उसका समावेश इधर किया गया हो ऐसा प्रतीत होता है। . क का ग, च का ज और त का द ये सब अघोष के घोष बनने की प्रक्रियावाले हैं जो महाराष्ट्री प्राकृत के पूर्व की कुछ प्राकृतों की लाक्षणिकताएँ हैं । जब शौरसेनी और मागधी में त का द बनने का एक अलग सूत्र दे दिया और ८.४.४४७ में 'व्यत्यय' सर्वव्यापी बना दिया गया तो फिर सामान्य प्राकृत के लक्षण समझाते समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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