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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्घ मागधी ११ सूत्र-६.२०,-त्तो ङसे:-एदादो, एदादु, एदाहि । सूत्र-६.३५, डसौ (तत्तो, तइत्तो, तुमादो, तुमादु, तुमाहि) ।
अर्थात् पंचमी एकवचन की विभक्ति -तो के बदले में -दो का और भाववाचक प्रत्यय –ता के बदले में –दा का स्पष्ट उल्लेख है ।
पू. आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के अनुसार त का द शौरोनी और मागधी भाषा में ही होता है । सामान्य प्राकृत के लिए वररुचि के सूत्र-२.७ का नियम उन्हें स्वीकार्थ नहीं था इसीलिए उन्होंने उसका निषेध किया सूत्र ८.१.२०९) है । वे कहते हैं –अत्र केचिद् ऋत्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु शौरसेनी मागधीविषय एव दृश्यते इति नोच्यते । प्राकृते हि - ऋतु:=रिऊ; उऊ; रजतम् = रययं और जितने भी तन्द वाले उदाहरण वररुचि के व्याकरण में मिलते हैं वे उनके द्वारा मध्यवर्ती त का लोप करके दिए गये हैं ।
उनके सूत्र नं० ८.३.८ में सर्वनामो की पं० ए० व० की विभक्ति में -दो और -दु का भी उल्लेख है ( ङसेस् तोदोदुहिहिन्तो लुकः) परन्तु वृत्ति में कह दिया कि 'दकार करणं भाषान्तरार्थम्' अर्थात् दकार वाली विभक्ति अन्य भाषाओं में प्रयुक्त होती है ।
उन्होंने सामान्य प्राकृत में त - द का निषेध किया और अन्य भाषा में ऐसे प्रयोग मिलते हैं यह भी स्पष्ट किया। फिर भी उन्होंने अपने अन्य सूत्रों के अन्तर्गत त के द वाले प्रयोग क्यों दिए ? उनके बारे में ऐसी ही स्पष्टता क्यों नहीं की गयी ? यह सुस्पष्ट नहीं है । सूत्र नं० ८.१.३७ 'अतो डो विसर्गस्य' के उदाहरण में 'कुतः कुदो' दिया गया है । जबकि त के द का निषेध बहुत बाद में आगे ८.१.२०९. सूत्र की वृत्ति में किया गया है। इसी प्रकार देखिए सूत्र नं० ८.२.१६० 'तो दो तसो वा' । सामान्य प्राकृत भाषा के लिए दिये गये
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