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के. आर. चन्द्र
दिया गया है । पाठान्तरं रहित प्रयोगों के कुछ नमूने और पाठान्तर वाले भी कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं। इससे स्पष्ट होगा कि प्राचीन और उत्तरवती दोनों ही प्रकार के प्रत्यये स्वीकृत पाठों या पाठान्तरों में मिलते हैं । इस तरह से दोनों प्रकार के प्रत्ययों का मिलना यही दर्शाता है कि उत्तस्वी' प्रत्यय कालान्तर में वैकल्पिक प्रत्यय बन गये । प्राचीन प्रत्ययों के कुछ उदाहरण : आचासंग (i) पतिदेहतराणि 1.92, कूराणि कम्माणि 1.148, दुच्चरगाणिं
1.298, मंसूणि 1.30'3, गर्थिमाणि 2 689, विविहाणि 2.689,
इत्यादि । (ii) परितावेण 163, अलोमेण 171, तिविधेण 1 79. तेण 1.83
जेण 183, कडेण 1.93; छणपदेणं 1:103. अवरेण 1 124, पहेण 1.129t3), इत्यादि ।
खे. श्री खेतरवसी पाडा का भंडार, पाटन जे श्री जिनमद्रसूरि जैन ज्ञान भडार, जेसलमेर, वि. सं. १४८५
कागज की प्रतियाँ जै. जैन साहित्य विकास महल हे. १, २, ३ श्री हेमचन्द्राचाय जैन शान भडार, पाटन इ. जैन श्वेतांबर संघ का आत्मकमललब्धिसूरीश्वर शास्त्र संग्रह, इसर
ला. ला १ श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद (ख) सूत्रकृतांग (म. जै. वि.) के संपादन में उपयोग में ली गई प्रतियाँ
ताडपत्र की प्रतियां खं १. श्री शांतिनाथ ताडपत्रीय जैन ज्ञान भडार, खंभात, वि. सं. १३२७
, ,, वि. सं १३४९ पा. श्री घिवीपाडा जैन ज्ञान भंडार, पाटण, वि. सं १४६८
कागज की प्रतिया
ख २..
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