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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ९९ 5, स. ब. व. का प्रत्यय -सु है जो 83 बार मिला है, सिर्फ 1
बार -सु मिला है, ठाणेसु 3.24; पादान्त में भी -सु ही प्रयुक्त हुआ है। उदाहरण-बहुएसु 2 112, अङ्गेसु 71.21 -कामभोगेसु 106.38
. इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि महाराष्ट्री प्राकृत की पद्यात्मक रचनाओं में -आणि का -आई हो गया और मात्राओं के नियमन के लिए अन्य प्रत्ययों में अनुस्वार का आगम या लोप होने लगा । वसुदेवहिण्डी पर (गद्यात्मक रचना) इस उत्तरवर्ती परिवर्तन का प्रभाव दिखता है । उसमें –हिं की बहुलता है और कभी कभी -आई -एणं और –ण प्रत्यय भी मिलते हैं ।
अर्धमागधी आगम साहित्य में इन प्राचीन और उत्तरवर्ती विभक्ति-प्रत्ययों का प्रयोग वैकल्पिक हो गया हो ऐसा प्रतीत होता है । इस बात की पुष्टि नीचे दिये गये उदाहरणों से हो रही है ।
__आगम ग्रंथों के जिन संस्करणों से उदाहरण यहाँ पर दिये जा रहे हैं उनमें स्वीकृत पाठ अमुक अमुक प्रतियों से लिये गये हैं । अस्वीकृत पाठ पाठान्तर के रूप में दिये गये हैं जिनके सामने प्रतियों के नामों का उल्लेख है अतः स्वीकृत पाठों के सामने अन्य प्रतियाँ समझ ली जानी चाहिए। नीचे प्रतियों का परिचय*
- प्रतियों का परिचय (क) आचारांग (म. ज. वि.), के सम्पादन में उपयोग में ली गयी प्रतियाँ
ताउपत्र से. संघवी पाडा ज्ञानभांडार, पाटन, वि. सं. १३ वीं शती का उत्तराध शां. श्री शांतिनाथ ताडपत्रीय जैन ज्ञान भडार, खंभात, वि. सं. १३०३ ख. .
वि. सं. १३२७
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