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के. आर. चन्द्र
इस दृष्टि से वररुचि के प्राकृत- प्रकाश का यह नियम कि नकार का सर्वत्र णकार होता है किसी प्रदेश की ही प्रवृत्ति हो सकती है, न कि सारे भारत की सभी प्राकृत भाषाओं की । श्रीमती नीति दोल्ची ने तो वररुचि के इस नियम (सूत्र नं. 242 ) की प्रामाणिकता पर ही शंका की है, जो बिलकुल उचित है । उनके अनुसार इस सूत्र में सर्वत्र शब्द बाद में जोड़ा गया है। पहले उसमें' 'नाद' था और बाद में उसमे' 'वादी' आ गया । अन्त में उसके स्थान पर 'सर्वत्र ' शब्द जोड़ दिया गया है । 14
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हमारी दृष्टि से तो ऐसा भी हो सकता है कि मूल सूत्र में 'नो = ण:' ही था । यह नियम प्रारंभिक नकार के लिए नहीं था, परन्तु केवल मध्यवर्ती नकार तक ही सीमित था । वररुचि स्वयं दक्षिणप्रदेशी (अर्थात आधुनिक महाराष्ट्र के पश्चिमी भाग के दक्षिण प्रदेश के) रहे होंगे, तभी उनके इस न=ण के नियम की सार्थकता सिद्ध हो सकती है अन्यथा क्षेत्र एवं काल की दृष्टि से इस नियम की विसंवादिता सिद्ध होती हैं । अब ध्यान में लेने योग्य मुद्दा यह है कि मागधी और अर्धमागधी जैसी भाषाएँ तो पूर्वी भारत की भाषाएँ थीं और उनके लिए नकार का णकार में नियमित परिवर्तन कभी भी नहीं होता था । अतः इस सारे अध्ययन और विश्लेषण का निष्कर्ष यही निकलता है कि अर्धमागधी भाषा के प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन करते समय मध्यवर्ती नकार का सर्वत्र णकार बनाना अनुचित और अनुपयुक्त ही माना जाना चाहिए और मध्यवर्ती अवस्था में दन्त्य नकार के प्रयोग अल्प प्रमाण में ही सही यदि ग्रन्थ की किसी भी प्रत में, उसके उद्धरणों में या उसकी नियुक्ति, चूणीं या वृत्ति में मिलते हो तो मूल नकार ही स्वीकार्य होना चाहिए
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