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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
टिप्पण 1. पिशल महोदय (224) को ललित-विग्रहराज नाटिका की मागधी और शार
सेनी भाषा में उपलब्ध नकार (प्रारम्भिक) क्रमशः निम्मल (निसर), निरन्तर, निअ (561.2) तथा नोमालिर (नवमालिके) (560.9,17), मुद्रण के दोष लगते हैं । वास्तव में ऐसा नहीं होना चाहिए, परन्तु इन्हें प्राचीन पाठ माना जाना चाहिए, जो किसी न किसी तरह अपने मूल रूप में बच गये हैं। प्राचीन कृतियों में इसी प्रकार मध्यवर्ती नकार के प्रयोग भी अमुक प्रमाण में चालू रहे होंगे परन्तु किसी न किसी प्रभाव के कारण लेहियों के हाथ और कुछ अंश में सम्पादकों के हाथ वे धीरे धीरे अदृश्य होते गए ऐसा मानना
अनुपयुक्त नहीं होगा। 2. सिद्धहेमशब्दानुशासन, लघुवृत्ति खंड-3, अध्याय-८, युनिवर्सिटी ग्रन्थ-निर्माण
बोड', गुजरात राज्य, अहमदाबाद-6, 1978 3. अक 1, इलोक 15 के पश्चात् , देवघर संस्करण, पूना, पृ. 11, ई. स.
1937. 4. ग. जोगलेकर, पुणे, 1956, पाठान्तर या शुद्धिपत्रक में कोई अन्यथा
उल्लेख नहीं है। 5. लीपविग, ई स. 1881 6. देखिर आल्सडर्फ' का लेख संग्रह : - Kleine Schriften,
Wiesbaden, 1974 7. पिशल (224) महोदय ने पू. हेमचन्द्राचार्य द्वारा किये गये इस उल्लेख (अपवाद
रूप-प्रयोग यानि अर्धमागधी में कुछ शब्दों में मध्यवर्ती नकार पाया जाता है) की टीका की है। उनका कहना है कि किसी गलत पाठ के कारण पू हेमचन्द्र ने ऐसे अपवाद का आदेश दिया है (8. 1. 228) । परन्तु इस निबन्ध में प्रस्तुत तथ्यों के आधार पर पिशल महोदय का यह विधान अब
उपयुक्त नहीं लगता । 8. पू० मुनि श्री पुष्पविजयजी द्वारा संपादित सूत्रकृतांग में दिया हुआ चूर्णी का
पाठ, प्रा. टे. सोसायटी, 1975 पृ. 103 9. Historical Grammar of Inscriptional Prakrits, M.A. Mehen
dale, Poona, 1948, p. 276
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