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________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी KI1) दूसरी शताब्दी ई.स. 'धू में इन, म पश्चिम में फैला और भ, न पूर्व और मध्यक्षेत्र में आया । .. • (IV) प्रथम और द्वितीय शताब्दी में दक्षिण में ज्ञ=न (न्न) और अ (ञ) एक साथ प्रयुक्त हुए, तीसरी शताब्दी से दक्षिण में (जस) अदृश्य हो गया । • (v) अशोक के समय में उत्तर-पश्चिम और दक्षिण में कभी कभी ही ज्ञण भी मिलता था । वह प्रथम-द्वितीय शालाब्दी में पश्चिम में फैला, द्वितीय-तृतीय शताब्दी में उस vण का प्रचलन दक्षिण में बढ़ा और चौथी शताब्दी में मध्यक्षेत्र में उसका प्रचलन हुआ । इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि पूर्वी क्षेत्र में प्रारम्भ से ही ज्ञ-1 (न्न) का प्रचलन था और ण (ण) का प्रचलन उत्तर-पश्चिम में था । चार सौ वर्षों के बाद प्रण का प्रचलन पश्चिम में होता हैं | उसके बाद दक्षिण में बढ़ता है और उसके पश्चात् मध्यक्षेत्र में प्रचलित होता हैं । अर्धमागधी साहित्य के प्राचीन अंश का सृजन पूर्वी क्षेत्र में हुआ है अतः वहाँ से ही अपनी एक विशेषता ज्ञान (न्न) अर्धमागधी भाषा में भी आधी । जैन धर्म का केन्द्र जब पश्चिम भारत बना तब अर्धमागधी साहित्य में ज्ञःण (ण) भी प्रविष्ट हुआ होगा ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है । आ. हेमचन्द्राचार्य ने ज्ञान का उल्लेख अर्धमागधी भाषा के लिए भी नहीं किया यह एक आश्चर्य की बात है । ऐसी सम्भावना भी नहीं की जा सकती कि अर्धमागधी में पहले झण्ण था और बाद में न्न हो गया । ज्ञन्न की विशेषता अर्धमागधी भाषा अपने ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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