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के. आर. चन्द्र पिशल महोदय के कथनानुसार भी यही फलित होता है कि -एण प्राचीन प्रत्यय है और –एणं उत्तरकालीन है । उनका कहना है कि (363) मागधी, शौरसेनी, पैशाची, चूलिका
पैशाची और जैन शौरसेनी मे सिर्फ -एण (तृ. ए. व.) प्रत्यय मिलता है जबकि महाराष्टी, जैन महाराष्ट्री और अर्धमागधी * में -एण और -एण' दोनों प्रत्यय मिलते हैं ।
वसुदेवहिंडी और पउमचरियं महाराष्ट्री प्राकृत की प्राचीन जैन रचानाएँ हैं अतः उनमें प्रयुक्त इन विभक्ति प्रत्ययों की क्या स्थिति है यह जानना उपयोगी होगा । वसुदेवहिंडी
.. यह एक गद्यात्मक रचना है जिसमें मात्राओं के नियमन के. लिए अनुस्वार के आगम या लोप की आवश्यकता नहीं रहती । इस रचना के प्रथम खण्ड के प्रथम अंश के 1-16 पृष्ठों (400 श्लोक-प्रमाण) का विश्लेषण इस प्रकार है । 1. नपु. प्र. द्वि. ब. व. का बहु प्रचलित विभक्ति प्रत्यय -आणि
है। सिर्फ चार-पाँच प्रतिशत -आई मिलता है, उदाहरणफलाणि 2.22 , ताणि 3 25 , दिट्ठाणि ।1.8 , वंजणाणि
14 22, जुद्राणि 16 2., एवं एयाई 3 25, सधणाई 119 2. तृतीया ए. व. (पु. नपु. अकारान्त) का चालू प्रत्यय
-एण है, कभी कभी लगभग 10 से 12 प्रतिशत –एणं पाया * इसमें प्राचीन और उत्तरकालीन दोनों प्रकार की अर्धमागधी का समावेश हो।
जाता है सिवाय कि पद्यात्मक अंशों में ऐसे प्रयोग जहाँ पर वृत्त-भग से बचने के लिए अनुस्वार-सहित या अनुस्वार-रहित प्रत्यय की आवश्यकता हो ।
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