SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी सेतुबन्धम् * (i) नपुं. प्र. द्वि. ब. व. के लिए - आणि प्रत्ययवाला एक भी प्रयोग नहीं मिला है । प्रचलित प्रत्यय - आई और आइँ हैं । दो चार प्रयोग - आइ के भी मिलते हैं ( रअणाइ 2.14, रक्खसाइ, तुरआइ, पवआइ 15.17 ) | (ii) तृतीया ए. व. का बहु प्रचलित विभक्ति प्रत्यय - एण ही है । कभी कभी मात्राओं के नियमन के लिए आठ-दस प्रयोगों में अनुस्वार युक्त – एण मिलता हैं (णिम्माणएणं 3.45, लोअणेणं 347, असेणं 3.55, अइसएण 4.35, इत्यादि) । (iii) तृतीया बहुवचन का प्रचलित विभक्ति प्रत्यय - हि है ( वाणरेहि 15.4 ) । कभी कभी हि और हिं भी मिलते हैं (अम्हेहि 3.32, नईहिं 2.16) । (iv) षष्ठी ब. व. का प्रचलित प्रत्यय णं है, कभी कभी मात्राओं के नियमन के लिए -ण भी मिलता है ( वाणराण 2.45, वहन्ताण 3.26, रामचरणाण 8. 28, नईण 8.65, सुरवडूण 15.78 ) और बहुत कम प्रयोग - ण के भी मिलते हैं । ( कलहंसाण 1.23, दिसाण 1.24, वाणराण ँ ँ 1.55 ) । प्राकृत - प्रकाश के सूत्र नं. 4.16 पर टिप्पण करते हुए कॉवेल महोदय का यह मत है कि वृत्त के भंग को बचाने के लिए नपुं. प्र. द्वि. ब. व., तृ. ए. व., और तृ. ब. व. के प्रत्ययों में अनुस्वार का आगम या लोप होता है । इसका अर्थ यह होता है कि -आणि, एण, प्राचीन प्रत्यय थे और उत्तरवर्ती काल में पद्यात्मक रचनाओं में छन्द के नियमन के लिए उनमें अनुस्वार का लोप होने लगा । हि णं और सु आगम या संरा. पं. शिवदत्त, निर्भय सागर प्रेस, बम्बई, 1935 Jain Education International ९५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy