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के आर. चन्द्र प्राचीन प्राकृत काव्य साहित्य गाथा सप्तशती (1) गाथा सप्तशती में नपुसकलिंग प्रथमा-द्वितीया ब. व. के लिए .
-आणि प्रत्यय नहीं मिलता है । प्रचलित प्रत्यय -आई और (छन्द के नियमन के लिए) --आई मिलते हैं । गाथा नं 722 मे
--आइ प्रत्यय भी मिलता है । • (ii) तृतीया एक क्चन के लिए प्रचलित प्रत्यय -एण है जो पाद के
अन्त में भी मिलता है (जहाँ पर दीर्घ मात्रा की आवश्यकता होती है ) । मात्राओं के नियमन के लिए -कएणं(524), [पादएणं (766), अणुज्जुएणं (783), णामेणं (787), दंतोटेणं (795), वलाहिरेणं (805), लोअणेणं एव' माणसेएणं (822)] और एक
जगह दंसणेण (610) भी मिला है । 700 के बाद की प्रक्षिप्त .. गाथाओं में -एण प्रत्यय अधिक मात्रा में मिलता है । (iii) तृ. ब. व का प्रचलित प्रत्यय -हिं है जबकि -हिं -हि कम
मात्रा में मिलते हैं ।
(iv) ष. ब. व. का प्रचलित प्रत्यय –ण है, उसके बाद –णं की
बारी आती है । –ण प्रत्यय कभी कभी ही, जैसे- अण्णाण (89, 470) मिलता है । इस –ण प्रत्यय की संख्या 700 के बाद की गाथाओं में बढ़ जाती है (746, 764(3),
767, 80345), 860, 861, 936, 941) । (v) स. ब. व. का चालू प्रत्यय -सु है, सिर्फ एक बार –सु
(वणेसुं-77) मिल सका है । ___ * संपा. स. आ. जोगळेकर, प्रसाद प्रकाशन, पुणे, 1956
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