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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
स्वप्नवासवदत्तम् तथा मृच्छकटिकम् में तृ. ए. व. के लिए सिर्फ. -एण प्रत्यय ही मिलता है ।
प्राचीन शिलालेख
प्राचीम शिलालेखीय प्रयोगों से यह फलित होता है कि प्रत्ययों में अनुस्वार का आगम या लोप उत्तरवर्ती प्रवृत्ति है । प्रो.. मेहेण्डले' के अध्ययन का सार यह है कि प्राचीन शिलालेखों में नपु'.. प्रथमा-द्वितीया ब. व. के लिए सर्वत्र सामान्यतः-आनि प्रत्यय का. प्रयोग हुआ है (पश्चिम मे प्रथम शताब्दी से और दक्षिण मे तृतीय शताब्दीसे -आणि का प्रयोग) । -आई प्रत्यय का कहीं पर भी. उल्लेख नहीं है । पुलिंग -नपु. अकारांत शब्द के तृतीया ए. व.. का प्रत्यय –एन* सर्वत्र मिलता है (पश्चिम और मध्य क्षेत्रमें दूसरी शताब्दी ई. स. पूर्व से, उत्तर-पश्चिम में प्रथम शताब्दी ई. स.. पूर्व से और दक्षिण में दूसरी शताब्दी से -एण प्रत्यय मिलता है)। तृतीया ब. व. का विभक्ति प्रत्यय -हि सर्वत्र मिलता (पृ 24 1) है । सप्तमी ब. व. का प्रत्यय सर्वत्र –सु मिलता हैं (पृ. 241, 244, 245, 247, 249, 250) । ष. ब. व. का प्रत्यय सामान्यतः -नं है और कभी कभी सर्वत्र -न भी मिलता है (-नकार का -णकार पश्चिम में दूसरी शताब्दी ई. स. पूर्व से मिलने लगता है, पृ. 241 इत्यादि)। 1. Historical Grammar of Iascriptional Prakrits by ___M. A. Mehendale, Poona, 1948, p. 284 ff. 2. वही, ई. स. पूर्व दूसरी या प्रथम शताब्दी के मध्य भारत के एक शिलालेख
में -एणं प्रत्यय (हारितीपुतेण) मिलता है (पृ. 173) । 3. वही, चतुर्थ शताब्दी के बासिम के शिलालेखों में -हिं प्रत्यय मिलता है (लिखितेहिं, आमेहिं -पृ. 173, 180)
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