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________________ ७ प्राचीन प्राकृत भाषा में आद्य नकार या णकार नमो अरहतानं नमो सवसिधानं -(हाथीगुफा शिलालेख) जैन धर्म मे पंच परमेष्ठि को सर्वोत्कृष्ट स्थान दिया गया है और उनसे सम्बन्धित ही नमस्कार मन्त्र प्रचलित है और हर जैन प्रातःकाल में इसी मन्त्र का पाठ करता है । प्रचलित मन्त्र के प्रथम दो पद इस प्रकार के हैं --- नमो अरिहंताण नमो सिद्धाणं ___ अथवा एवं अथवा णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं यहाँ पर हमारा प्रस्तुत विषय यह है कि शब्दों के प्रारम्भ में दन्त्य 'न' कार के बदले में मूर्धन्य 'ण' कार का प्रयोग प्राचीनतम प्राकृत भाषी (अर्धमागधी) ग्रन्थों में प्रचलित था या नहीं और उस साहित्य के आधुनिक संस्करणों में उसे जिस प्रकार प्रचलित किया गया है वह कहाँ तक उचित है ? सर्वप्रथम ऊपर जो दो पद दिये गये हैं वे कलिंगाधिपति महाराजा खारवेल के हाथीगुफा शिलालेख से उद्धृत हैं । खारवेल का समय प्रथम और/या द्वितीय शताब्दी ई.पू. माना जाता है । राजा खारवेल निग्रंथ भक्त थे । वे ही मगध देश के राजा वृहस्पतिमित्र को अपने चरणों में नमाकर ३५० वर्ष पूर्व नन्दराजा द्वारा हड़प की गयी जिन प्रतिमा को वापिस अपने यहाँ लाये थे । स्पष्ट है कि वे निम्र थ धर्म के दृढ भक्त थे। उन्हीं के शिलालेख में नमस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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