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के. आर. चन्द्र
अङ्गार (हाल), भुञ्जसु (हाल), पउञ्ज (कपूरमञ्जरी) । . गाथासप्तशती एवं सेतुबन्ध की तरह ही भास के नाटकों में भी इन दोनों अनुनासिकों के प्रयोग मिलते हैं जब वे सजातीय वर्ण के साथ प्रयुक्त हुए हैं । . अन्त में ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा कि इ. और ञ् के बदले में अनुस्वार का प्रयोग परवर्ती काल का है । अतः प्राचीन साहित्य में प्राचीन प्रयोग ही यथावत् रखने हो तो अर्धमागधी के ग्रन्थों के सम्पादन में और बू के प्रयोगों को अनुस्वार में नहीं बदलना चाहिए और याकोबी, शुबिग तथा आल्सडर्फ महोदय की पद्धति का अनुकरण किया जाना चाहिए । - आचाराङ्ग के आगमोदयसमिति के संस्करण में कवर्ग और चवर्ग के अनुनासिक व्यंजनों का सजातीय व्यंजनों के साथ प्रयोग इस प्रकार मिलते हैं--
संवाय ९.१.१३, भुञ्जित्था ९.१.१८,१९, भुजे ९.४ ७ पलालपुजेसु ९.२.२, संलुञ्चमाणा ९.३.६ इत्यादि ।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि यही पुरानी पद्धति है । समय के प्रभाव से हस्तप्रतों में से अनुनासिक व्यंजन ङ् और ज के प्रयोग निकल गये । प्रतियां भी तो दसवीं-ग्यारवीं शताब्दी के बाद की ही मिलती हैं अत: उनमें ऐसे प्रयोग नहीं मिलना स्वाभाविक है। परंतु प्राचीन भाषा की प्राचीन कृतियों के सम्पादम में प्राचीन पद्धति अपनायी जानी चाहिए ।
1. सिद्धहेमशब्दानुशासन, लघुवृत्ति, खण्ड-3, ॐध्याय-8 (प्राकृत व्याकरण), युनि..... ग्रन्थ-निर्माण बोर्ड, अहमदाबाद, 1978
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