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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
- सम्पादित जैन आगमग्रन्थों में, याकोबी महोदय के पउमचरियं में और वाल्सडर्फ महोदय द्वारा सम्पादित इत्थीपरिरमा नाम के अध्याय में संयुक्तरूप में प्रयुक्त कवर्ग और चर्चा के अनुनासिकों का ही प्रायः प्रयोग मिलता है, जो प्राचीन पद्धति का अनुकरण है । पालि भाषा में तो सजातीय व्यंजन के साथ ङ् और ञ् के ही प्रयोग मिलते हैं । पालि की तरह अर्धमागधी भाषा भी प्राचीन भाषा रही है परन्तु आगम-ग्रन्थों के कई आधुनिक भारतीय संस्करणों में अनुस्वार का प्रचलन कर दिया गया है, जो स्पष्टतः किसी न किसी तरह पाइय-सद महण्णवो की पद्धति, आधुनिक भाषाओं और परवर्ती • हस्तप्रतों की लेखन-पद्धति से प्रभावित है । स्पष्ट है कि बदलती हुई इस पद्धति का प्रभाव प्राचीन प्राकृत साहित्य की अर्वाचीन हस्तप्रतों पर भी पड़े बिना नहीं रह सका ।
आचार्य श्री हेमचन्द्र द्वारा दिये गये कुछ उदाहरण,
जिनमें अनुस्वार के स्थान पर अनुनासिक का प्रयोग है, इस प्रकार दिये जा सकते हैंकञ्चुइआ (४.२६३), हजे (४.२८१) कञ्चुइया (४.३०२), हजे (४.३०२)
शौरसेनी
मागधी
अपभ्रंश
वकु (४.३३०), अड्गु (४.३३२) मुञ्जन्ति (४.३३५) उच्छङ्गि (४.३३६)
हेमचन्द्र के निम्न सूत्रों एवं उदाहरणों में अनुस्वार के बदले
४१
अनुनासिक का प्रयोग है
शुल्के जोवा (८.२.११) सुन, सुक्कं (पं. श्री बेचरभाई के अनुसार
सुंग पृ. १०७)
शाङ्गात्पूर्वात् (८.२.१००) सारङ्ग ।
पिशल द्वारा जैनेतर साहित्य से दिये गये उदाहरणों में अनुनासिक व्यंजन के प्रयोग
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