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के. आर. चन्द्र
वररुचि इन दोनों प्रकार के प्रयोगों को वैकल्पिक मानते हैं जबकि आचार्य हेमचन्द्र पहले अनुनासिक के प्रयोग को मान्य स्खते हैं और बाद में उसे वैकल्पिक बना देते हैं और साथ ही साथ यह भा कहते हैं कि अन्य व्याकरणकार. अनुनासिक व्यंजन के प्रयोग को नित्य मानते हैं। - इसः सबका सार यही निकलता है कि प्राचीनता की दृष्टि से अनुनासिक (ङ् और ञ् का भी) का ही स्वर्ण के व्यंजन के साथ संयुगात रूप में प्रयोग होता था परन्तु बाद में वैकल्पिक रूप में अनुस्वार का प्रयोग होने लगा । प्राचीन. प्राकृतों के बाद अर्वाचीन प्राकृतों में से होकर आधुनिक भाषाओं में अनुस्वार के प्रयोग की ही प्रधानता रही है और उसी का प्रभाव प्राकृत की हस्तप्रतों पर भी पड़ा और धीरे धीरे ङ और ञ के बदले में सिर्फ अनुस्वार का ही प्रचलन बढता गया है ।
परन्तु स्वयं आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में ङ् और न के सजातीय व्यंजन के साथ संयुक्त रूप वाले प्रयोग ही प्रायः मिलते हैं । धात्वादेश, शौरसेनी, मागधी और अपभ्रंश के उदाहरणों में भी यही स्थिति है । संयुक्त व्यंजन के रूप में प्रयुक्त ङ् के स्थान पर लगभग ६% और ब् के स्थान पर लगभग १३% ही अनुस्वार के प्रयोग हैं । दोनों का सम्मिलित प्रयोग लगभग नौ प्रतिशत ही होता है ।
पं. श्री बेचरदासजी ने अपने हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण-- ग्रन्थ में (गुजराती) अनेक स्थलों पर अनुनासिक के बदलेमें अनुस्वार के प्रयोग की छूट रखी है। परन्तु पिशल महोदय के प्राकृत व्याकरण में प्राकृत साहित्य से दिये गये उदाहरणों में, शुबिंग महोदय द्वारा
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