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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ३९ के साथ व्यंजन रूप में प्रयुक्त होता है-उसी के विपरीत यह कहा
जा रहा है । ... हेमचन्द्र पुनः ऐसा कहते हैं कि अनुस्वार के पश्चात् वर्गीय - व्यंजन आने पर उसका विकल्प से अनुनासिक होता है । उदाहरणार्थ.... पङ्को--पंको, कञ्चुओ-कंचुओ, कण्टओ-कंटओ, अन्तरं-अंतरं, कम्पइ
कंपइ । परन्तु अनुस्वार के पश्चात् स या ह आने पर अनुस्वार ही रहता है, जैसे--संसओ, संहरइ । यथा--
सूत्र-वर्गेन्त्यो वा (८.१.३०) वृत्ति-अनुस्वारस्य वर्गे परे प्रत्यासत्तेस्तस्यैव वर्गस्यात्यो वा भवति ।
वर्ग इति किम् । संसओ, संहरइ । वे पुनः कहते हैं-- नित्यमिच्छन्त्यन्ये ।। अर्थात् एक परम्परा ऐसी थी जो अनुनासिक व्यञ्जन का स्वर्ग के व्यञ्जन के साथ संयुक्त रूप में प्रयोग नित्य मानती थी ।
जब हेमचन्द्र के इन तीन प्रकारान्तर के विधानों का मन्थन करते हैं तो यह निष्कर्ष निकलता है कि पहले पहल उन्होंने संयुक्त व्यंजनों में ङ् और अ (अन्य अनुनासिकों की तरह) का प्रयोग मान्य रखा । तत्पश्चात् अनुस्वार का विधान किया और अन्त में अनुस्वार या अनुनासिक दोनों का प्रयोग वैकल्पिक बताया । ।
इस विषय में वैयाकारण वररुचि का एक ही विधान रहा है जो श्री हेमचन्द्र के अंतिम विधान के साथ मेल रखता है । यथा
सूत्र-ययि वर्गान्तः (४.१७) वृत्ति-ययि परतो बिन्दुस्तद्वर्गान्तो वा भवति । उदाहरण- सङ्का, सङ्खो, संका, संखो
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