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६. अनुनासिक व्यंजन ङू और ञ् का अनुस्वार में परिवतर्न
आचार्य श्री हेमचन्द्र अपने प्राकृत व्याकरण के प्रारम्भ में ही प्रथम पाद के प्रथम सूत्र की वृत्ति में ऐसा कहते हैं कि अनुनासिक व्यंजन ङ् और ज् अपने वर्ग के व्यंजनों के साथ संयुक्त रूप में प्रयुक्त होते ही हैं
वृत्तिङ
स्ववर्ग्यसंयुक्तौ भवत एव (८.१.१)
परन्तु पुनः सूत्र नं २५ में ऐसा आदेश है कि ङ्, ञ्, णू और व्यंजन आने पर उनका अनुस्वार हो जाता है । यथा
न् के पश्चात् सूत्र - डाणनो व्यञ्जने (८.१.२५ )
वृत्ति - ङाणन इत्येतेषां स्थाने व्यञ्जने परे अनुस्वारो भवति ।
उदाहरण- पङ्क्तिः = पंती, पराङ्मुखः परं मुहो, कञ्चुकः-कंचुओ, लाञ्छनम् = लंछणं, षण्मुखः = छंमुहो, उत्कण्ठा = उक्कंठा, सन्ध्या संझा, विन्ध्यः = विझो ।
इनमें दो प्रकार के उदाहरण हैं - एक स्ववर्ग के और दूसरे परवर्ग के । कंचुओ, लंछणं, संझा, विझो और उक्कंठा स्ववर्ग के हैं । जबकि परंमुहो और छंमुहो परवर्ग के हैं परन्तु साथवाला परवर्ग का व्यंजन भी अनुनासिक ही है ।
इससे यह फलित होता है कि अनुनासिक व्यंजन यदि किसी भी व्यंजन के साथ संयुक्त रूप में आता है तो उसका अनुस्वार हो जाता है अर्थात् स्ववर्ग के साथ आने पर भी अनुस्वारमें बदल जाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि पहले जो कहा गया कि अपने अपने वर्ग
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