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________________ के. आर. चन्द्र मन्त्र के ये दो पद अंकित हैं और यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होगी कि यह मन्त्र अपने मूल रूप में 'नमो' से ही प्रारंभ होता : था न कि णमो' से और मध्यवर्ती 'न' कार भी अपरिवर्तित था । यह तो भारत के पूर्व देश की बात हुई जहाँ पर जैन धर्म भगवान् • महावीर के समय में बहुत फूला फला । उसी प्रकार मथुरा (यानि शूरसेन प्रदेश, जिससे शौरसेनी प्राकृत ' का नामकरण हुआ) के प्रथम शती ई. सन् के राजा शोडास के लेख में भगवान् महावीर को नमस्कार करके लेख अंकित किया गया है • जिसका पाठ इस प्रकार है नम अरहता वधमानस (नमः अर्हते वर्धमानाय) हेमचन्द्राचार्य ने भी शौरसेनी प्राकृत के लक्षण समझाते समय आर्ष भाषा के अव्यय णं का उदाहरण देते समय 'नम:' के लिये 'नमो' का उल्लेख किया है। उदाहरण- नमोत्थु णं (८.४.२८३)। जैन धर्म पूर्व से पच्छिम की ओर फैलता है और शरसेन प्रदेश में आने पर भी 'नम' का 'नम' ही रहा, उसमें 'न' का 'ण' नहीं हुआ । आवश्यकसूत्र' में प्रथम बार मिलनेवाला नमस्कार मन्त्र भी 'न' से शुरू होता है :- नमो अरहंताणं । सम्राट अशोक के शिलालेखों में लगभग १२५ शब्द (जिनका कितनी ही बार प्रयोग हुआ है) 'न' कार से ही प्रारम्भ होते हैं । मात्र एक बार ही एक शब्द 'न' के बदले में 'ण' से प्रारम्भ होता है । वह शब्द है _ 'णि झ [पे] त [वि] ये' जो जौगढ़ के प्रथम पृथक् शिलालेख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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