________________
परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ३१
आश्चर्य की बात तो यह है कि इस मन्तव्य के विरुद्ध भरतनाट्यशास्त्र में 'म' अति का आंशिक रूप से प्रत्यक्ष रूप में अनुमोदन मिलता है । उसमें निम्न प्रकार का निदेश हैप्रचलाचिराचलादिषु भवति चकारोपि मु यकार: १७. १६
अर्थात् मध्यवर्ती 'च' का 'य' भी होता है ।
अब लोक-प्रवृत्ति को भी देख लें कि उसमें 'य' अति का प्रचलन था या नहीं और 'य' भुति के नियम का मात्र जैन लेखम परम्परा में ही जो पालन किया गया है यह कहाँ तक उचित है ?
पालि साहित्य में लो मध्यवर्ती अलाप्राण व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति है ही नहीं फिर भी उसमें भी कहीं कहीं पर 'य' श्रुति मिलती है जो लोक-प्रवृत्ति के प्रभाव के नमूने मिल रहे हो ऐसा मालूम होता है । गाइगर महोदय' (३६) ने कुछ उदाहरण इस प्रकार दिये हैं जो प्राचीनतम पालि साहित्य में भी मिलते हैं
निय(निज)-सुत्तनिपात, आवेणिय (आवेणिक) - विनयपिटक, अपरगोयान (अपरगोदान)-बोधिवंश, खायित (खादित)-जातक ।
इस 'य' श्रुति का प्रचलन प्राचीन काल से ही था यह शिलालेखों से भी सिद्ध होता है । डॉ. एम. ए. मेहेंडले का इसके बारे में निम्न प्रकार का निष्कर्ष है
सम्राट अशोकके पूर्वी क्षेत्र के शिलालेखों में मध्यवती 'क' और 'ग' का कभी कभी लोप होने पर शेष रहे उस 'अ' का जो 'अ' और 'इ' के पश्चात् आता है कभी कभी "य' में बदलने के कुछ उदाहरण प्राप्त हो रहे हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org