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५. मध्यवर्ती उद्वृत्त स्वर के स्थान पर
___ 'य' श्रुति की यथार्थता
आचार्य श्री हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में ऐसा नियम दिया है कि मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का लोप होने पर 'अ' और 'आ' शेष रहने पर यदि वे 'अ' और 'आ' के बाद में आये हो तो
और कभी कभी अन्य स्वरों के बाद आये हो तो भी उन 'अ' और 'आ' की लघु प्रयत्न के कारण 'य' श्रुति हो जाती है ।
उनका सूत्र और वृत्ति इस प्रकार हैअवर्णो य श्रुतिः ८.१.१८०
कगचजेत्यादिना लुकि सति शेषः अवर्णः अवर्णात्परो लघुप्रयत्नतरयश्रुतिर्भवति ।। नयर, रसायलो, पयावई, पायालं । क्वचिद् भवति (अर्थात् शेष 'अ', 'आ' के पहले 'अ' या 'आ' नहीं होने पर भी) पियइ (पिबति) और सरिया (सरिता ८.१.१५) ।
व्याकरणकार चण्ड के 'प्राकृत लक्षण' में भी 'य' श्रुति का सूत्र दिया गया है परन्तु हेमचन्द्र की तरह इतना स्पष्ट नहीं है-- ... यत्वमवणे ३.३७
___ ककारवर्गतृतीययोरवणे परे यत्वं भवति । काका:-काया, नागा:= नाया ।
वररुचि इस प्रवृत्ति के बारे में मौन है । तो क्या ऐसा माना जाय कि इस 'य' श्रति की प्रवृत्ति वररुचि के बाद में प्रारम्भ हुई या वररुचि ने जिस प्राकृत भाषा का व्याकरण लिखा है उसमें या उनके समय में 'य' श्रुति का प्रचलन ही नहीं था और यह प्रवृत्ति बाद में प्रचलित हुई ।
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