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परम्परागत प्राकत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
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हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरणों के प्रायः लोप के नियम लाग नहीं होते हैं । इस दृष्टि से अर्धमागधी आगम ग्रन्थों का पुनः सम्पादन अनिवार्य सा बन जाता है ।
1. The Prakrit Grammarians, L. Nitti, Dolci, p. 210, Motilal
Banarasidas, 1972 2. Ibid, p. 159 3. आल्सडर्फ के अनुसार (मेहेण्डले के निष्कर्ष का निराकरण करते हुए) अघोष
का घोष बनना जिसमें त-द का भी समावेश होता है यह पूर्वी क्षेत्र की ही विशेषता रही है-Kleine Schriften, p. 451, Wiesbaden (1974,
A.D.). 4. देखिए आगे-"विशेषावश्यक भाष्य के पाठान्तरों, उत्कीर्ण प्राचीन अभि.
लेखों और इसिभासियाई की भाषा के परिप्रेक्ष्य में प्राचीन आगम ग्रन्थों का
सम्पादन" 5. देखिए मेरा लेख-''Study of Prakrits in Classsical Dramas :
Their Stages in Some Early Dramas", Vidya, Guj. Univ., Aug.
1980, pp. 45-60 6. Ludwig Alsdot : Kleine seriften, 1974 A.D., pp. 197-200 7. Ibid. pp. 186--192
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