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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
(II) (अ) स्त्रकृतांग(1.4) के इत्थी-परिन्ना अध्ययन में-सुहुमेनं 1.2,
अंजनसलागं 2.10 , (ब) उत्तराध्ययन के अध्ययन .5 मेमोनं (15.1), सुमिनं (15.7), सिनाणं (15.8), भोजन (15 11), जवोदनं (15.13) एवं (स) दशवैकालिकसूत्र
मे-न खने (10.2), सुनिसियं (10.2)। (III) शुब्रिग महोदय द्वारा सम्पादित 'इसिभासियाई” नामक एक
प्राचीन अर्धमागधी ग्रन्थ मे तो मध्यवर्ती नकार की यथावत्
स्थिति अन्य आगम ग्रन्थों से अधिक मात्रा में पायी जाती है, जैसे अ. 1 2 में परिनिव्वुडे, 9. पं. 2 में उवनिचिज्जइ, पं. 8 मे भत्तपाण-निराहणाइ एवं 91 मे अनिव्वाणं, 9.5 में अनियत्ती, 9.12 में बद्धपुट्ठ-निधत्ताणं, 9.28 में अनियट्टी, 10.8 मे कालक्कमनीति-विसारदे, 17.3 में विनिच्छितं (पाठान्तर), 24. पं 9 में अनवदगं, .4.24 में अनलो, 24.39 में निच्चानिच्च, 24. 40 में थानं, 38.24 में मोक्खनिव्वत्तिपाओग्गं, 40 पं. 2 मे अनिगहन्तो, 418 में अभिनन्दती, 419 में तवनिस्साए । ऊपर ।। इत्थीपरिन्ना का - सुहुमेन का उदाहरण तृतीया ए.व. की विभक्ति
का है। इसिभासियाई में 24.13 मे ष. ब. व. के 'न' विभक्ति प्रत्यय की संभावना है- सव्वत्थानाऽभिलुप्पति । हेमचन्द्र के मागधी-शौर सेनी के प्रकरण से नकार वाली तृतीया विभक्ति के दो उदाहरण ऊपर आ चुके हैं जो विशेष (पदिओन मारुदिना) ध्यान देने योग्य हैं । ... इस संदर्भ में हमारे द्वारा विद्वानों का ध्यान आकर्षित करने
का विशेष कारण यह है कि इस ग्रन्थ मे' महाकासव नामक अध्ययन (९)में मध्यवर्ती नकार ६ बार यथावत् मिलता है और अन्य
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