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के. आर. चन्द्र .
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उत्तराध्ययन
अप्पसत्थेहि दारेहि', सव्वओ पिहियासवो 19.94 दशवकालिक सूत्र
बहुं अच्छीहि पेच्छइ 8.20 ... कण्णसोक्खेहि सद्देहि 8 26
प्राचीन रूपक साहित्य एवं शिलालेखों में जो प्राचीन विभक्तिप्रत्यय प्रयुक्त हुए हैं वे ही पालिसाहित्य में भी मिलते हैं। अर्धमागधी भाषा के भी अमुक ग्रन्थ प्राचीन हैं अतः उनमें भी प्राचीन प्रत्यय ही होने चाहिए परन्तु सर्वत्र ऐसा नहीं है चाहे वह रचना पद्यात्मक हो या गद्यात्मक । छन्द के लिए मात्राओं के नियमनार्थ जहाँ जहाँ पर अनुस्वार का आगम या लोप किया गया हो वह तो उपयुक्त लगता है परन्तु जहाँ पर दीर्घ या हस्व (गुरु या लघु) की कोई आवश्यकता नहीं हो वहाँ पर भी ऐसे प्रयोग आ गये हैं। पद्य में ही नहीं परन्तु गद्य में भी ऐसे प्रयोग घुस गये हैं। हस्तप्रतों में तो वैकल्पिक रूप से दोनों प्रकार के प्रयोग मिलते हैं इससे यह प्रमाणित होता है कि मूलतः प्राचीन प्रत्यय ही थे परन्तु कालान्तर से उत्तरकालीन प्रत्ययों का (अनुस्वार सहित या रहित) प्रचलन सामान्य हो गया । जब पद्य' में -आणि, –एण, - हि, -णं और -सु के स्थान पर मात्राओं के नियमन के लिए -आई, -एण, -हि. -ण और -सु का प्रयोग होने लगा तब उत्तरवर्ती काल में ये वैकल्पिक प्रत्यय भी प्रचलित हो गये। दूसरा कारण यह भी है कि लोगों . 1. देखिए :- Pali Language and Literature by Geiger,
para No. 70, 81, 82, 85, etc.
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