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________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ११३ के मुख से शब्द का अंतिम अक्षर नाक से उच्चरित होने लगा अतः उनमें अनुस्वार2 जुड़ गया और कभी कभी शिथिल उच्चारण से मूल अनुस्वार का लोप हो गया। इन दो कारणों से अनुस्वारसहित और अनुस्वार-रहित दोनों ही प्रकार के प्रत्यय प्रचलन में आगये और तब फिर व्याकरणकारों के लिए वे दोनों ही प्रत्यय भाषा के अनिवार्य अंग बन गये। एक बार अनुस्वार-रहित प्रत्यय ने अनुस्वार-युक्त होकर प्रमुख स्थान पा लिया और फिर मात्राओं के नियमन का प्रश्न उठा तब उन्हें अनुनासिक (चन्द्र बिन्दु-युक्त) कर दिया गया, अर्थात् –आणि= आइं,आई, एण-एणं, एण, हि =हिं-- हि,-f= ण ण और -सु-सु→ सु । यही इन प्रत्ययों का ऐतिहासिक विकास है । इस सारे अध्ययन का सार यही है कि अर्धमागधी की प्राचीन कृतियों में जहाँ पर मात्राओं के नियमन का प्रश्न उपस्थित नहीं होता है वहाँ पर प्राचीन विभक्ति-प्रत्यय ही रहे यही उचित माना जाएगा । 2. वसुदेवहिंडी. प्र. ख. प्रथम अंश में उपलब्ध अनुस्वारयुक्त प्रयोग :---- आज्ञार्थ द्वि. पु. ए. व के प्रयोग -- पयहि, g 3.27, नित्यारेहि, पृ. 16.5 सूत्रकृतांग का प्रयोग --- पेहाहिं (पेहाहि प्रेक्षस्व-शी.) 1.4 2.43; .... पहराहि 1.4 2.9 (पाठा. - कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन Let right deeds be thy motive, not the fruit which comes from them, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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