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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
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के मुख से शब्द का अंतिम अक्षर नाक से उच्चरित होने लगा अतः उनमें अनुस्वार2 जुड़ गया और कभी कभी शिथिल उच्चारण से मूल अनुस्वार का लोप हो गया। इन दो कारणों से अनुस्वारसहित और अनुस्वार-रहित दोनों ही प्रकार के प्रत्यय प्रचलन में आगये और तब फिर व्याकरणकारों के लिए वे दोनों ही प्रत्यय भाषा के अनिवार्य अंग बन गये।
एक बार अनुस्वार-रहित प्रत्यय ने अनुस्वार-युक्त होकर प्रमुख स्थान पा लिया और फिर मात्राओं के नियमन का प्रश्न उठा तब उन्हें अनुनासिक (चन्द्र बिन्दु-युक्त) कर दिया गया, अर्थात् –आणि= आइं,आई, एण-एणं, एण, हि =हिं-- हि,-f= ण ण और -सु-सु→ सु । यही इन प्रत्ययों का ऐतिहासिक विकास है ।
इस सारे अध्ययन का सार यही है कि अर्धमागधी की प्राचीन कृतियों में जहाँ पर मात्राओं के नियमन का प्रश्न उपस्थित नहीं होता है वहाँ पर प्राचीन विभक्ति-प्रत्यय ही रहे यही उचित माना जाएगा । 2. वसुदेवहिंडी. प्र. ख. प्रथम अंश में उपलब्ध अनुस्वारयुक्त प्रयोग :---- आज्ञार्थ
द्वि. पु. ए. व के प्रयोग -- पयहि, g 3.27, नित्यारेहि, पृ. 16.5 सूत्रकृतांग का प्रयोग --- पेहाहिं (पेहाहि प्रेक्षस्व-शी.) 1.4 2.43; .... पहराहि 1.4 2.9 (पाठा.
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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन Let right deeds be thy motive, not the fruit which comes from them,
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