________________
के. आर. चन्द्र
(iv) आयू-पायून (पादोन) L ११३३. नासिक H
यही नहीं परन्तु चतुर्थ शताब्दी के मैसूर राज्य के बेलारी जिल्ले के शिवस्कंदवर्मा के हीरहडगल्लि के ताम्रपत्र में भी 'य' श्रति का प्रयोग मिलता है ।
भारद्दायो (भारद्वाजः), भारदाय (भारद्वाज), अकूर-योल्लक(अकूर-- चोल्लक)।
अर्थात् ऐसा अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि दक्षिण में यह प्रवृत्ति नहीं थी । इस परिप्रेक्ष्य में वररुचि द्वारा 'य' श्रति का उल्लेख नहीं किया जाना उनके व्याकरण का एक आश्चर्य ही है ।
शिलालेखों में जो उदाहरण मिलते हैं उनमें सभी स्वरों के पश्चात् आने वाले प्रायः सभी उद्वृत्त स्वरों के स्थान पर 'य' श्रति मिलती है । पिशल महोदय का भी मत है कि जैनों द्वारा लिखी गयी हस्तप्रतों में भी यही स्थिति है परन्तु जैनेतर रचनाओं की हस्तप्रतों में यह 'य' श्रुति नहीं अपनायी मयी है । उनका कहना है की लेखन का सही तरीका यह है कि सभी स्करों के बाद उद्वृत्त स्वर अ और आ के स्थान पर 'य' श्रुति का उपयोग होना चाहिए (पिशल १८७) ।
आधुनिक भाषाओं में भी यह 'य' श्रुति कितने ही शब्दों में पायी जाती है।
हिन्दी : गया, किया, दिया, पिया, अंधियारा, बहिनिया, सियार (शृगाल), सीयाराम (सीताराम), जीयदान, अमिय, पियर । गुजराती : पियर, सीयाल (शृगाल), मायरु, दियर, गयो, शीयालो, होय । बंगाली : शयर (शकर), मोया (मोदक)। मराठी : पाय (पाद)।
अन्य शब्द : धनपतराय, रायबहादुर, कायर । वास्तव में उच्चारण की सरलता और लघु-प्रयत्न का सिद्धांत ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org