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परम्परागत प्राकृत व्याकरण को समीक्षा और अर्धमागधी
ज्ञातव्य हो कि प्रो. मेहेंडले द्वारा दिये गये उदाहरणों में (१.२९८२९९) 'य' श्रुति के उदाहरणों के साथ साथ उदाहरणों की मात्रा अधिक है ।
उद्वृत्त स्वरों के
व्याकरणकार वररुचि ने प्राकृत भाषा के जो लक्षण दिये हैं उनके आधार से वे दक्षिण प्रदेश (महाराष्ट्र, विन्ध्यगिरि के दक्षिण का प्रदेश) के निवासी थे ऐसी संभावना हो सकती है - यह एक अनुमान मात्र है । वे दक्षिण प्रदेश के हो और दक्षिण में 'य' श्रुति की यह प्रवृत्ति विद्यमान न हो ऐसी शंका की जा सकती है । परन्तु दक्षिण के शिलालेखों में प्रथम शताब्दी ई. स. पूर्व से ही इस प्रवृत्ति के उदाहरण मिलते हैं (* देखिए आगे पृ. ४५ और अध्याय ८ का अन्तिमपैरा ) ।
(i) अय - सोपारय ( शूर्पारक ) L १११९ नानाघाट II आय- नाय (नाग) L १०७८, भाजा इय-सामिय (स्वामिक) L१०१६३, नासिक IV उय - पुयथ (पूजार्थ) L १०००३, कण्हेरी ओय - महाभोय ( महाभोज) L१०७३, कुडा
(ii) आया - राया (राजा) L १११३, नानाघाट I उया वेण्या (त्रिष्णुका ) L १०६०, कुडा
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(iii) अयि-पवयितिका ( प्रव्रजितिका) L १०४१, कुडा पवयित ( प्रत्रजित ) L ११२५, नासिक IV एवं कण्हेरी आयि - मायिला (भ्राजिला ) L १०५०, कार्ले I इयि - वाणियिय ( वाणिजिय- वाणिज्य) L १०५५, कुडा एयि - वेयिका (वेदिका) L १०८९,
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