SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के. आर. चन्द्र प्रो० श्री एल० आल्सडर्फ महोदय यदि छन्द की दृष्टि से किसी शब्द की मात्रा को घटा या बढ़ा सकते हैं, हस्व या दीर्घ र सकते हैं और उसमें वर्ण बढा या घटा सकते हैं तो इसी न्याय से भाषा की प्राचीनता को सुरक्षित रखने के लिये क्यों न प्राचीन शब्द-रूप ही स्वीकार किये जाने चाहिए । यदि किसी ग्रन्थ की प्राचीनता अन्य प्रमाणों से सुस्पष्ट हो तो फिर उसकी भाषा की प्राचीनता को यथास्थापना के लिए उपलब्ध सामग्री के सहारे प्राचीन शब्द-रूप ही स्वीकार किये जाने चाहिए । यह तो बिलकुल स्पष्ट है कि. आगम ग्रन्थों की भाषा में ध्वन्यात्मक दृष्टि से बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ है । इसका प्रबल साक्ष्य चाहिए तो हम विशेषावश्यकभाष्य की हस्तप्रतों का अध्ययन करें जिससे एकदम स्पष्ट हो जाएगा कि किसी को इस विषय में तनिक भी शंका करने का अवसर ही नहीं रहेगा । १३२ पं० श्री दलसुखभाई मालवणिया द्वारा सम्पादित एवं ला० द०. भा० सं० वि० मन्दिर, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित वि० आ० भा० के नवीन संस्करण की कुछ विशेषताएँ हैं । इसके सम्पादन में जिन हस्तप्रतों का उपयोग किया गया है उनमें से सबसे प्राचीन जेसलमेर की ताडपत्रीय हस्तप्रत (जे. ) हैं जिसका समय लगभग ई० सन् के दसवे शतक का पूर्वार्ध माना गया है । ( इसके अतिरिक्त 'त' संज्ञक प्रत भी ताडपत्रीय है । 'हे' और 'को' संज्ञक दो छपे हुए संस्करण हैं - एक मलधारी हेमचन्द्र का और दूसरा कोट्याचार्य की टीका सहित हैं ) । इन सबसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण जो हस्तप्रत मिली वह है 'सं' संज्ञक जो स्वोपज्ञवृत्ति सहित है और उसका समय ई० सन् १४३४ है । स्वोपज्ञवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy