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________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी २५ अनुसार अंघोष व्यंजनों का घोष ई० स० के पहले से ही (अशोक के समय से ही) प्रारम्भ हो जाता है जबकि उनका लोप ई० स० के पश्चात् गति पकड़ता है । सभी अल्पप्राण व्यंजनों का लोप एक साथ प्रारम्भ नहीं होता है परन्तु समय की गति के साथ बढता है । व्यंजनों के लोप की पूर्वापरता को ध्यान में रखा जाय तो सबसे पहले मध्यवर्ती य,व और द का लोप होता है । उसके पश्चात् ज, प,क,च और त का, उसके बाद ग की बारी आती है । इन सब में पहले य श्रुति को स्थान मिलता है जबकि उवृत्त स्वर का यथावत् रहना अर्थात् शुद्ध लेप की प्रवृत्ति परवर्ती हो ऐसा प्रमाणित होता है (देखिए, मेहेण्डले, पृ २७१-२७४) । शिलालेखीय भाषा में ध्वनि-परिवर्तन (मध्यवर्ती व्यंजनों के घोष, अघोष और लोप) का चित्र इस प्रकार है । घोषीकरण (i) क का ग : ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में पूर्वी क्षेत्र से फैला च का ज : ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में पूर्वी क्षेत्र से फैला प का व : ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में पूर्व और दक्षिण से फैला । त का द' : ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में उत्तर-पश्चिम और उत्तर से फैला । (ii) थ का ध : ई.स. पूर्व दूसरी शताब्दी में पूर्वी क्षेत्र से फैला ख का घ : ई.स. पूर्व प्रथम शताब्दी में मध्यक्षेत्र से फैला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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