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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
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अनुसार अंघोष व्यंजनों का घोष ई० स० के पहले से ही (अशोक के समय से ही) प्रारम्भ हो जाता है जबकि उनका लोप ई० स० के पश्चात् गति पकड़ता है । सभी अल्पप्राण व्यंजनों का लोप एक साथ प्रारम्भ नहीं होता है परन्तु समय की गति के साथ बढता है । व्यंजनों के लोप की पूर्वापरता को ध्यान में रखा जाय तो सबसे पहले मध्यवर्ती य,व और द का लोप होता है । उसके पश्चात् ज, प,क,च और त का, उसके बाद ग की बारी आती है । इन सब में पहले य श्रुति को स्थान मिलता है जबकि उवृत्त स्वर का यथावत् रहना अर्थात् शुद्ध लेप की प्रवृत्ति परवर्ती हो ऐसा प्रमाणित होता है (देखिए, मेहेण्डले, पृ २७१-२७४) ।
शिलालेखीय भाषा में ध्वनि-परिवर्तन (मध्यवर्ती व्यंजनों के घोष, अघोष और लोप) का चित्र इस प्रकार है ।
घोषीकरण
(i) क का ग : ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में पूर्वी क्षेत्र से फैला
च का ज : ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में पूर्वी क्षेत्र से फैला प का व : ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में पूर्व और दक्षिण से फैला । त का द' : ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में उत्तर-पश्चिम
और उत्तर से फैला । (ii) थ का ध : ई.स. पूर्व दूसरी शताब्दी में पूर्वी क्षेत्र से फैला
ख का घ : ई.स. पूर्व प्रथम शताब्दी में मध्यक्षेत्र से फैला
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