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के. आर. चंद्र
. . अर्थात् अल्पप्राण का महाप्राण और अघोष का घोष होता है । इन सूत्रों के पश्चात् फिर कहा गया है
कतृतीययोः स्वरे (३.३६) । अर्थात् मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का लोप होता है ।
चण्ड ने पहले महाप्राण और घोष बनने की बात कही और तत्पश्चात् लोप के बारे में कहा । हेमचन्द्र और वररुचिने पहले लोप की बात कही फिर घोष बनने की बात कही । व्याकरणकारों के इन अलग अलग प्रकार के नियमों और उनके क्रम में एकरूपता न होने से फलित होता है कि सभी अल्पप्राण व्यंजनों का लोप एक साथ नहीं किन्तु धीरे-धीरे क्रमशः प्रचलन में आया होगा। सर्वप्रथम तो घोषीकरण की सामान्य प्रवृत्ति थी । नीति डोल्ची भी इसी मत की पुष्टि करती है ।।
__ मागधी और शौरसेनी प्राकृत भाषाएँ महाराष्ट्री प्राकृत से पूर्ववर्ती अवस्था की भाषाएँ हैं अत: उनमें (त, थ = द, ध के सिवाय) अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोपं होना कहां तक उचित माना जाना चाहिए। पैशाची प्राकृत भी महाराष्टी से पूर्वकाल की भाषा है । उसमें अल्पप्राण व्यंजनों का लोप नहीं है । उसी प्रकार मागधी और शौरसेनी में प्रायः लोप वाला नियम प्राकृत भाषाओं के ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से उचित नहीं ठहरता ।
वररुचि के अनुसार तो मध्यवर्ती त का द प्राकृत में ही होता था परन्तु हेमचन्द्र ने इसका निषेध करके त के लोप को भी सामान्य बना दिया जैसा कि ऊपर उल्लेख हो चुका है । शिलालेखों में घोष और लोप की स्थिति
मेहेण्डले द्वारा किये गये शिलालेखीय भाषा के विश्लेषण के
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