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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
केचिद् ऋत्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु शौरसेनीमागधीविषय एव दृश्यते इति नोच्यते वृत्ति (८.१.२०९) ।
आ. हेमचन्द्र ने लोप के नियम के अन्तर्गत कहीं कहीं पर च का ज और क का ग होना भी अर्थात् अघोष व्यंजनों का घोष होना भी सामान्य प्राकृत में ही बतलाया है ।
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प्राकृत भाषा के प्रारम्भिक काल में मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों के प्रायः लोप की प्रवृत्ति नियमित नहीं हो सकती जैसा कि दोनों व्याकरणकार समझाते हैं । 'भरत नाट्य - शास्त्र' के अनुसार भी क,ग, त, द, य और व का ही लोप बतलाया गया है
बच्चन्ति कगतदयवा लोपम् (१७.७) ।
इनमें च ज और प का समावेश नहीं होता है परन्तु प का व में बदलने का अलग से उदाहरण दिया गया हैआपाणमावाणं भवति पकारेण वत्वयुक्तेन । (१७.१४) ।
बाद में च के बदले में य (य श्रुति) होने के भी उदाहरण दिये गये हैं
प्रचलाचिराचलादिषु भवति चकारोपि तु यकार : ( ( ७.१४ )
मध्यवर्ती ज के लोप का उल्लेख ही नहीं है । वररुचि और हेमचन्द्र द्वारा आदिष्ट सभी अल्पप्राण व्यंजनों का लोप प्रायः होता हो ऐसा 'भरत नाटय-शास्त्र' से फलित नहीं होता है ।
इसी सन्दर्भ में चण्ड के 'प्राकृत लक्षणम्' का मत जानना भी उपयोगी होगा । उनके सूत्र इस प्रकार हैं
प्रथमद्वितीययो द्वितीयचतुर्थी ( ३.११) । प्रथमस्य तृतीयः (३.१२) ।
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