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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
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में क्या क्या प्रतिरूप substitutes) हो सकते हैं उनका व्याकरण शास्त्र है न कि एक से दूसरी की उत्पत्ति का । यह तो मात्र समझाने के लिए एक पद्धति अपनायी गयी है जहाँ उत्पत्ति का सवाल ही नहीं है ।
इस सम्बन्ध में भरतमुनि का मन्तव्य भी जानना अनुचित नहीं होगा ।
उन्होंने प्राकृत की उत्पत्ति, प्रकृति या योनि के बारे में तो कुछ नहीं कहा है । वे लिखते हैं कि नाटकों में दो ही पाठ्य भाषायें हैं, एक संस्कृत और दूसरी प्राकृत (भ० ना० शा० १७.१) ।
वे आगे कहते हैं कि प्राकृत संस्कारगुण से वर्जित होती है । उसमें समान शब्द (तत्सम), विभ्रष्ट (तद्भव) और देशी शब्द होते हैं । यह परिवर्तन (विपर्यस्त) युक्त होती है (१७.३) ।
इस कथन के अनुसार एक भाषा संस्कारगुण वर्जित है (प्राकृत) अर्थात् दूसरी भाषा संस्कार गुण वाली है (संस्कृत) ।
इससे यह प्रश्न उठता है कि जिसको संस्कारयुक्त बनाया गया, जिसे संस्कार दिया गया वह भाषा कौन सी ? उत्तर होगा जो संस्कार रहित थी उसे संस्कारयुक्त बनाया गया अर्थात् प्रकृति को यानि प्राकृत को सुसंस्कृत बनाया गया । तब कौन सी भाषा पहले और कौन सी बाद में । स्पष्ट है कि जो प्रकृति की भाषा, स्वाभाविक लोकभाषा, जन-भाषा थी उसे ही संस्कार देकर सुसंस्कृत बनाया गया । यहाँ पर भाषा के किसी नाम विशेष से तात्पर्य नहीं है सिर्फ समझना इतना ही है कि असंस्कार वाली भाषा में से संस्कार वाली भाषा बनी।
संसार की सभी भाषाओं पर यही नियम लागू होता है । शिष्ट
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