________________
के. आर, चन्द्र
भाषा का उद्भव किसी एक लोक-भाषा से ही होता है और बाद में दोनों में परस्पर आदान-प्रदान होता रहता है।
यदि संस्कृत ही प्राकृत की योनि हो तो फिर जो नियम पू० हेमचन्द्राचार्य ने बनाये हैं वे उल्टे साबित नहीं होते हैं क्या ? उदाहरणार्थ:(१) सूत्र-८.३.१५८ वृत्ति' 'अकारस्य स्थाने एकारो वा भवति ।
जैसे—हसइ का हसेइ, सुणउ का सुणेउ । फिर आगे वृत्ति में कहा गया है कि
'क्वचिदात्वमपि अर्थात् कहीं कहीं अ का आ हो जाता है:
उदाहरणार्थ-सुणाउ (श्रुणातु) इससे यह फलित होता है कि सुणउ से सुणाउ हुआ ।
वास्तव में तो संस्कृत में जो 'आ' है उसके स्थान पर ही प्राकृत में अ और ए प्रचलित था । श्रुणातु-सुणाउ, सुणउ, सुणेउ ।
यहाँ पर पू० हेमचन्द्र ने समझाने की जो पद्धति अपनायी है उससे संस्कृत को प्राकृत की योनि मानकर स्रोत के रूप में उसका अर्थ ले तो उचित नहीं ठहरता है ।
अतः प्रकृति शब्द से उनका तात्पर्य 'जन्मदात्री' नहीं है परन्तु समझाने के लिए यह तो एक 'आधार' ही माना जाना चाहिए । (२) शौरसेनी में थ का ध होने के लिए स्त्र उन्होंने दिया है
थो धः-८.४.२६७ फिर बाद में इह के ह और द्वि० पु० ब० व० के वर्तमान काल के प्रत्यय ह का ध होना बतलाया है ।
इह हचोः हस्य ८.४.२६८, उदाहरण-इध, होध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org