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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
मार अधमागधी
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यह तो संस्कृत 'भवथ' का 'होघ' है अर्थात् थ का ध बना है । इसको संस्कृत से न समझाकर प्राकृत से ही समझाया हैअर्थात् संस्कृत में से प्राकृत की उत्पत्ति की उनकी मान्यता होती तो क्या वे ऐसा करते ?
(३) इह में से इध हुआ हो यह भी सही नहीं है मूल तो इध ही था उसमें से ही संस्कृत में इह बना है ।
इस सन्दर्भ में पू० आ० श्री हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्रयुक्त 'प्रकृति' शब्द का अर्थ यही होता है कि प्राकृत भाषा को समझाने के लिए (अर्थात् तद्भव अंश के लिए) संस्कृत का आश्रय लिया जा रहा है, उसे आधार मानकर समझाया जा रहा है, इससे अलग ऐसा अर्थ नहीं कि संस्कृत प्राकृत की जननी है या उसमें से उसकी उत्पत्ति
दूसरी दृष्टि से प्रकृति और योनि शब्द का उपयोग इसलिए भी किया होगा कि उनके द्वारा प्राकृत के लिए कोई स्वतंत्र व्याकरण ग्रंथ नही लिखा जा रहा था। उनके सिद्धहेमशब्दानुशासनम् ग्रन्थ में संस्कृत का व्याकरण सात अध्यायों में समझाये जाने के बाद आठवें अध्याय में प्राकृत व्याकरण का विषय लिया जा रहा था । अतः क्रमपूर्वक संस्कृत के विद्वानों को "प्राकृत भाषा" संबंधी नियम दिये जा रहे थे इसीलिए संस्कृत भाषा को आधार बनाया गया और इस दृष्टि से ही योनि और प्रकृति शब्दों का उपयोग किया गया। - इसके अलावा भरतमुनि ने प्राकृत को नाटकों में संस्कृत के समान ही दर्जा दिया है । उनके द्वारा यह कहा गया है कि नाटकों में दो ही पाठय भाषाएँ होती हैं । उनमें से संस्कृत के बारे में तो कह दिया अब प्राकृत के बारे में कहता हूँ---
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