________________ के. आर. चन्द्र एवं तु संस्कृतं पाठ्यं मया प्रोक्तं समासतः / प्राकृतस्य तु पाठ्यस्य संप्रवक्ष्यामि लक्षणम् // भ.ना.शा. 17.1 जिसे अलग-अलग अवस्थाओं में अपनायी जानी चाहिए / विज्ञेयं प्राकृतं पाठय' नानावस्थान्तरात्मकं / भ.ना.शा. 17.2 यही प्राचीन स्थिति है जब संस्कृत के साथ प्राकृत भाषा को भी समान रूप में योग्य पद प्राप्त था / भरतमुनिने नाटकों में प्रयोज्य भाषा को संस्कार युक्त या संस्कार देने की जो बात कही है वह सिर्फ व्याकरणबद्ध करने की दृष्टि से कही है और इसी हेतु से उसके लिए नियम बनाये गये हैं / भविष्य में भी हरेक साहित्यिक भाषा के लिए ऐसी ही पद्धति अपनानी पडेगी / गयपद्यमय साहित्य जैसे कि ललित साहित्य, कथा साहित्य, काव्य साहित्य और अनेक शास्त्रीय ग्रंथों एवं नाटकों में जो प्राकृत भाषा मिलती है उसकी उत्पत्ति का कोई प्रश्न ही नहीं था और न कभी उसके पद या दर्जे का सवाल था / मूलतः यह तो तुलनात्मक दृष्टि से समझाने की बात थी अर्थात् एक भाषा के स्थान पर दूसरी भाषा के लिए कैसा दूसरा शब्द या कौन सा दूसरा रूप अर्थात् प्रतिरूप ( substitute ) अपनाया जाय उसी की एक कथा है, प्रथा है, पद्धति है या यों कहिए कि एक व्याकरण शास्त्र है। Therefore in the Nalyasastra there are instructions a ad guide-lines as regards the substitutes for stagedialects that are to be assigned to various types of characters in dramas. इन दो भाषाओं के आपसी सम्बन्ध को दृष्टान्तों द्वारा भी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org